पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४६
श्यामास्वप्न

तीन घंटों में सायंकाल को दुर्गा पाठ करके संतुष्ट ही कर लेते थे . इन दोनों के मध्य में एक जंबुक अपने पैरों से भूमि खोदता-इधर उधर देखता-सभों के कानों में फुसफुसाता-धान की रोटी दांतों में दबाए रामायन बाचते बैठा था, इसके पीठ पर एक महाधर्मी निष्कपट बक 'प्राणिनाम्बधशंकया'-एक चरण उठाए भटकता था. यह वही जंबुक था जिसने कर्पूरतिलक को राज का लालच दे बड़े भारी पंक में फंसाकर उसी का मांस नोच नोच खा लिया पर दुनिया वेष को पूजती है . अंत में सभी अपने किए को पाते हैं . एक ओर सुषेण वैद्य-चित्रगुप्त-काक- भसुंडि-धृतराष्ट्र-शिवशंकर-बिलाई माता-तालूफोड़-खिलात के खाँ-तुंबुरगंधर्व-और स्वयंप्रभा बैठी थी .

मेरी आँख झट इस मनोहर और विचित्र झाँकी की ओर फिर गई . मैं खड़ा हो गया . बड़ी देर तक विचारता रहा . मन में आया कि निकट बढ़ के देखें , आगे पाँव बढ़ाया, बस चल दिया . भगवान रामचंद्र के सन्मुख हाथ जोड़ खड़ा हो गया और मन ही मन नमस्कार और दंड- प्रणाम कर बंदना की . चाहा कि कुछ कहैं पर इस्से भी एक विचित्र दृश्य ने मेरा मन अपनी ओर आकर्षण (आकर्षित) कर लिया . क्षणभर में आँख उठाते ही इसी सभा को एक विस्तृत मंदिर में बैठे देखा यह मंदिर माया के बल से विश्वकर्मा ने बात की बात में बना दिया था . वही सभा बाहर लगी देखी-अर्थात् मंदिर के जगमोहन में . कान बंद करके सुना तो ढोल और सहनाई के शब्द सुने . आँख बंद करते ही यही विकराल वदना चंडी पूर्वोक्त साज से मंदिर के भीतर से निकल पड़ी . मैं एक बार चिहुंक पड़ा, पर इसे भली भाँति चीन्हता था . (इसका वर्णन प्रथम जाम के स्वप्न में हो चुका है ). मैंने प्रणाम किया; चंडी हँसी . उसके दुर्दर्श उज्ज्वल दशनों से मंदिर का अंधकार फट गया . यह उसी रूप में निकली जिस रूप में मैंने इसे पहले देखा था- अर्थात् दो बालिकाओं को काँख में दबाए-इत्यादिक रूप में फिर भी दर्शन दिये . सिंह पर