पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१८७

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श्यामास्वप्न १४७

सवार हाथ में मद्यभाजन और नरकपाल लिए पहुंची. मैं इन्हें देख प्रार्थना करने लगा. मैं तो श्यामसुंदर के (की) खोज में चला था और वह बिचाता श्यामा के (की). मैंने सोचा इससे कुछ अपना काम निकलैगा-क्योंकि पहले इसी ने हमैं मंत्र बताया और झोली दी थी . मुझे गम अगन का कुछ ज्ञान न रहा . जी जलता था, मित्र का दुःख असह्य था . चित्त की उमंग में कह डारा अब चाहे फलो वा मत फलो . मित्र की सहायता क्यौं न करता ? जब जिसकी बाँह पकड़ी तब फिर उसके निमित्त क्या न करना-देखो रामचंद्र ने सुग्रीव के हेतु बाली को मार ही डाला .

दोहा

नासु देवि तिनको करो जे वैरीगन मोर ।
जेन देहि सुख देह कहँ जरै जौन लखि जोर ॥१

छप्पै

कर कराल करवाल कराली
नासु देवि तिन बुद्धि रहै नहिं तन सुधि शाली।
तुरत सकत को जुरत जु दीठी
नासु देवि काली कपाल गहि माल अनीठी।
मम अरि जे जे दूष्ट खल मीलन हेतू बाघा करहीं।
तिन कहं अबहीं चंडिके चाटु चाटु चट पट मरहिं ॥२
नासु देवि तेहि तुरत सदा जो मम अरि साँचो
नासु देवि तेहि तुरत अाजु याही वर जाचों।
नासु देवि है चण्डि चंडिके चट पट वाही
चाटु चाटु जौं सांचु जगत परभाव तवाही ।
किलकि किलकि ता कंठ लगि पी सोनित सोनित वदनि ।
हरषि हरषि के पान करु पै रच्छह जीवन सदनि ॥३