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श्यामास्वप्न

भगवान चिंतामणि के (की) ओर वह छड़ी दिखाई राम, लक्ष्मण और सीता सब शिलामयी मूर्ति मात्र हो गए-दूसरे (दूसरी) बार जो उसने फूंक कर वही छड़ी दहिनी और बांई ओर घुमाई तो सभा की सभा सब पाषाण की हो गई . जितने पशु पक्षी जीवधारी थे सबके सब केवल पाषाण के आकार मात्र रह गए . चंडिका कहने लगी "तुमने अभी इसका संपूर्ण व्यौरा नहीं सुना और न देखा--क्यौं व्यर्थ भ्रम में पड़े हो--"

मैंने कहा--"देवि ! यदि कुछ न कहती तो अज्ञान ही रहना भला होता पर अब इतने कहने पर अधिक शंका हो गई तो दया करके कही डारो और मेरे मनोरथ पूरे करो."

चंडी बोली--"वत्स ! देखो मैं तुमको अपना प्रभाव दिखाती हूँ. देखो, इतना कह उस वृद्धा ने कुछ पढ़कर पूरब ओर उरदा फेके. फेकते ही मंदिर का द्वार बंद हो गया . सभा मात्र पाषाण की जग- मोहन में बैठी रही, ठाकुर की झाँकी लोप हो गई--पर उसी द्वार के पोस ही एक सुरूपवान् पुरुष--गौरांग-लाल किनारे की धोती पहने- दुपालिया अद्धी की टोपी लगाए--सुकेशधारी--अलफी पहने लँगड़ाता हुवा चिल्लाने लगा मुझै आश्चर्य लगा कि यह क्या हुआ . सुषेण वैद्य जो जादू से प्रस्तर हो गया था उसकी चिल्लाहट सुन उछल पड़ा, ऐसी फलांग मारी जैसे ऊँट. कूद ही तो पड़ा हात में एक छुरा लिए--"जाने न पावे--जाने न पावै" यह कहता कहता उस उक्त पुरुष की जांघ ही काटने को उद्यत हुआ . उधर से ब्रजांग और चित्रगुप्त भी पहुँचे--उसी सुरूपवान् को सबल जकड़ लिया और वैद्य जी ने छुरा जाँघ पर रेतना आरम्भ किया, वह कितना चिल्लाया तड़का और फड़फड़ाया पर सुषेण जी कब मानते हैं अब तो यह पुरुष खंज होकर निःसंज्ञ वहीं पड़ गया चंडिका ने अपने हाथ बढ़ाए और वजांग, सुषेण, चित्रगुप्त और उस दुखी . .