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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१८९

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श्यामास्वप्न

जासो वाको नास तुरत वरदायिनि चंडी
होवै विना बिलंब श्राजु सुइ कर परचंडी।
धरहुँ ध्यान तुअ सांच जिय तू हिय की जानत भलै ।
पुरवहु मम मनकामना सफल प्राजु अरि कह दलें ॥८
दीन जोर कर विनय करत काली कपालिनी
शूल फाँस गहि प्रान तासु लेवहु करालिनी ।
नरमाला द्विपचर्म भैरवी भैरवनादिनि
भीषन जिह्वा ललन दलन रिपु तु जू अनादिनि ।
मिटवहु जियकी कसकि तेहि मसकि कंठ लोहू पियत ।
निसि अँधियारी में हरहु तासु प्रान राखु न जियत ॥६

सोरठा

ध्यान तोर निसि द्यौस चरन जलज सेवत सदा ।
जिमि वासो मिलि हौस बीते रैन सुचैन सों ॥१०
याहि वांचि रिपुनास होहु जाहिं सुमिरौं जियहिं
पुरवहु सब मम आस दुर्गा दुर्गति नाशिनी ॥११
द्वादश बंध सुछद अधिक जेठ सुदि नैन तिथि ।
वासर रोहिनि मंद विरचि विनय बल बाँचिए ॥१२

भगवती कपालिनी प्रसन्न हुई, बोली-"मैं तुम्हारी वंदना से प्रसन्न भई, वर मांग-"

मैंने कहा-“यदि तू सचमुच प्रसन्न है तो मेरी वंदना की विनय पूरी कर -श्यामसुंदर का पता बता दे और अंत में श्यामसुंदर को श्यामा से मिला दे बस यह मांगता हूँ . देख मैं भी उन्हीं को खोजता खोजता इस विजन वन में आया हूँ." इसको सुन चंडी ने अपनी झोली से जादू की काली छड़ी निकाली, निकालकर अपने सिर के चारों ओर घुमाया--फिर सामने लाकर फूंक दिया . फूंक कर ज्यौंही उसने