सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५६
श्यामास्वप्न

मेरा ध्यान उचट गया . मैंने आकाश की ओर देखा, चारों ओर देखा पर कोई भी न दिखा . सिर में पीड़ा हो आई , बदन सनसनाने लगा . आँखें सिकुड़ गई . बुद्धि आनंद सागर में मग्न हो गई. जिस वस्तु का ध्यान करता अनंत कल्पना की तरंगें उठती . श्यामा की मूरति दीप की टेम में दिखाने लगी . नसें सिकुड़ने लगी . शरीर स्थिर और साहसी हो गया . देवी के दिए चषक ने क्या क्या तमाशे दिखाए . श्यामा का नाम जपने लगा मैंने उसे बैठे देखा-नहाते देखा-गृह कृत्य करते देखा-सोये देखा -पर श्यामसुंदर का दर्शन न हुआ . मन तो वहीं था--जहाँ जीव तहाँ तन; जहाँ तन तहाँ प्राण. दृष्टि विभ्रम होने लगा . लेवनी लहराती थी . स्थिर है तो स्थिर, चली तो चली फिर क्या पूछना है; घुड़दौड़ होने लगी . तीर्थ का ऐसा पुन्य प्रताप होता है . भृकुटी चढ़ी है. प्रेम की (के) आसव में छके हैं . होश नहीं-जिधर पैर धरा उधर ही चल निकले . सुर्रक तो ठहरी इस्में कुछ पूछना तो नहीं है . आग में जलने लगा . आँखों ने पानी बरसाना आरंभ किया, पर वह आग न बुझी . यदि सहाय की तो केवल मकरंद और वज्रांग ने-देवी ने आसव दे अद्भुत रंग छा दिया . क्या जाने क्या बक चले क्या बक गए-वाक्यों का अभी तक अंत न हुआ . पर संत भी तो पूरे वसंत ही थे . डब्बे के आदमी की भाँति कुटी में रहा करते थे . जहाँ एक बंदर ने छेड़ा तो इनकी नानी ही मर जाती थी . यह देखो आकाश में पैर लगने लगे-एक नया ग्राम ही बस गया--भगवान् विराट ने समस्त पृथ्वी दिखाई-मैं तो अर्जुन था न . मुखारविंद-नहीं नहीं--मुख गह्वर खोलते ही विचित्र झाँकी रस में छाकी दिखाई देने लगी--गलियों में गैया चलती थीं .


  • यह एक लिखौना है। डब्बे में एक बूढ़ा सुपेत दाढ़ीवाला बंद रहता है;ज्यौंही ढकना खोलो कमानी की शक्ति से वह फक से निकल पड़ता है।