पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५६
श्यामास्वप्न

जो ऐसे कहवाय के प्रेम मोर चीन्ह्यो नहीं ।
तो रावरि सब कपट की बात गई खुलि तुरत ही ॥३॥
मोर विरह बस देह गई पचि सो किन जानहुँ ।
अंतरजामी होय गोय यह हू तुम मानहुँ ।
एक बरस लौ ध्याय ध्यान कर श्यामा केरा।
देव मनावत गए दिवस आसा बस फेग ।।
ता कह अंतरध्यान कर कहँ सोए तुम चक्रघर ।
के संगम भायौ नहीं तुमहि नाथ मम दीनकर ||४||
तुम्हरे पग तो भई विमाई सो भल जानहु ।
नाथ गोपिका विरह दवागिन जरि जरि मानहु ।।
मान समय वृषभानु सुता के चरन पलोटेश।
बस वियोग सहि विरह आँच परि सीस खरोटे ॥
अगनित कियो उपाव तुम विरहताप टारन पिये |
सो सब जानि न भावई अहो दया क्यों नहिं हिये ॥५॥
पचहुँ विरह की अगिन माझि संताप अपारू ।
असन न बसन सुहाय भाय नहिं मुहिं परिवारू ।
जहाँ लख्यौ तेहिं सुथल सोय सूने सब सारे ।
इक टक लखि सो तजै ठाँब नहिं दृग दह मारे ।।
झूलति है वह श्राजहू जिय में हिय में दृगन में
अबर में अवनी अबहिं तरु पातिन जल थलन में 1.६ ।
अब नहिं गाई जाय कहानी तेरे सनमुख ।
करुनानिधि कर जोर कहों करिये टुक कछु रुख ।
जो तुम साँचे दुःखहरन प्रेमिन अवलंबन ।
वृन्दा बिपिन सुचंद चारु चरचित तन चंदन ।।

  • देहि पदपल्लव मुदारम् इति गीतगोविन्द ।