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श्यामास्वप्न

तौ न बेर लावहु अहो दीननाथ असरन सरन ।
करहु सुरत अब तुरत प्रभु जै जगमोहन दुखदरन ॥७॥
जो तुअ जन्म उछाह सकल जग भौनन भारी ।
मंगल गान प्रमान दान करते नरनारी ॥
जो अानंद घन तीन लोक श्रानंद भरपूरा ।
तो मैं दोन अकेल एक आनँद अधूरा ॥
यह है तु महिमा लखो-पै इनाम इक दीजिए ।
श्यामसुंदर श्यामा जुगल जोरी जुर जस लीजिए ॥ ७ ॥

दोहा

कृष्ण जनम आठे करी विनती सुंदर श्याम-
हरहु पीर तन हीर की मन की जानत राम ॥८॥

इसी स्तुति को सुन चाहा कि श्यामसुंदर को पकड़ लेंय और दो बातें तो कर लेय पर ज्यौंही हाथ बढ़ाया आँख खुल गई, सब बिला गया, सबेरा हो गया-देखता हूँ तो कोई कहीं नहीं-बस वही घर और वही खाट--वही दीवट .

"वितान तने जहँ फूलन के द्युति चाँदनी शारद जोति अमंद ।
मिली सपने में तिया कविदेव मिटे सबही जियके दुख दंद ॥
सुगंध सुमंजु सनेह सनी सुतौलौ कोई कूकि उठ्यौ मति मंद ।
खुलै अँखियाँ तो न चंदमुखी न चंदोवा न चाँदनी चंद न चंद ॥"

चकित हो आँखें मीजता ही रह गया . वाहरे विचित्र स्वम ! क्या क्या देखा क्या क्या तमाशे दिखे--बस देखते ही बन आता है . श्यामा और श्यामसुंदर की प्रीति कैसी विचित्र हुई . इसका अंत कैसा हुआ , कहाँ से स्वप्न में श्यामा अपना सब हाल कहती थी --अब वह कहाँ बिलाय गई क्या क्या कहा--वाहरे समय ! वाहरे काल ! तू क्या क्या नहीं दिखाता ? कहाँ वह घोर यमपुर के तुल्य भुईहरे का कारागार-- --