तुम सर्वज्ञ कहाय जौ न मम पीरहिं जोई।
तौ 'झूठे सब नाम तिहारे जगतल होई।
एक प्रेम अवलम्ब तुमाहे मूरत जु प्रेमकर ।
गावत श्रुति व्यासादि भक्त प्रन रोपि रोपि धर ।
जौ ऐसे कहवाय के प्रेम मोर चीन्हो नहीं।
तौ रावरि सब कपट की बात गई खुलि तुरत ही ॥
मोर बिरह बस देह गई पचि सो किन जानहुँ।
अंतरजामी होय गोय यह हू. तुम मानहुँ।
एक बरस लौ ध्याय ध्यान कर श्यामा केरा ।
देव मनावत गए दिवस आसा बस फेरा ॥
ता कहँ अंतरध्यान कर कहँ सोर तुम चक्रधर ।
कै संगम भायो नहीं तुमहिं नाय मम दीन कर ॥
तुमरे पग तौ भई बिमाई. सो भल जानहु ।
नाथ गोपिका बिरह दवागिन जरि जरि मानहु ।
मान समय बृषभानु सुता के चरन पलोटे ।
बस बियोग सहि बिरह आँच परि सीस खरोटे ।
अगनित कियो उपाव तुम बिरह ताप टारन पिये।
सो अब जानि न आवई अहो दया क्यों नहिं हिये ॥
श्यामसुंदर के पारदर्शी स्वच्छ हृदय में प्रेम की कितनी अपूर्व आभा जगमगा रही है। इसके विपरीत श्यामा का प्रगल्भ प्रेम बरसाती नदी के समान बढ़ता घटता रहता है । डेढ़ वर्ष पश्चात् ही श्यामा कमलाकांत को पहचान भी नहीं पाती । डाइन ने सच ही कहा थाः
अरे तुच्छ मूर्ख-जड़-वह तेरी प्यारी जो इतने बड़े की बेटी है तुझे मिली जाती है क्या ? कहाँ तू कहाँ वह ? कहाँ सूर्य और कहाँ काँच, और फिर वह डेढ़ वर्ष तक क्या तेरे लिए बैठी है ? (पृ० १९)