पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/२०४

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विनय

सोरठा

बंदौ श्यामा श्याम चारहु फल को मूल जो
करहु मोर उर धाम हरहु पीर अनपाइनी॥१॥
विनय करौं कर जोर सुनु जगमोहिनि लाड़ली
करहु दया की कोर तुअ प्रभाव भव भय तरत॥२॥

सवैया

हम नेह कियो तजि गेह सबै सुत, मातु पिता अरु भ्रात जहाँ
बिनु मोल के दास भए तबहीं जन कीन्हों कृतारय मोहिं अहा।
अब तो उतनी नहिं चाह करो जगमोहन दुःख अनेक सहा
“सब छोड़ि तुम्हैं हम पायो अहो तुम छोड़ि हमैं कहो पायो कहा”॥३॥
इतनो न विचार कियो पहिले जब प्रीति लगाय लई तुम हा
बजिकै सब गाँव में डोड़ी फिरी भई हाय कनोड़ी कछु न रहा।
जगमोहन भूलि गई अब तो तजि कै सब भाँति न जीय दहा
“सब छोड़ि तुम्हैं हम पायो अहो तुम छोड़ि हमैं कहो पायो कहा”॥४॥

कुंडलिया

श्यामा बिन इत विरह की लागी अगिन अपार
पावस धन बरसैं तऊ बुझै न तन को झार।
बुझै न तन की झार मार निज बानन मारत
आँसू झरना डरन मरन को जो मुहिं जारत।
जरत अंत अनंग मीत बनि नीरद रामा
कैसे काटों रैन बिना जगमोहन श्यामा––॥५॥