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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/२१५

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श्यामास्वप्न


लाल चूनरी पहिर कैं करत खूनरी काहि।
इंद्रधनुष सी छबि मनौ नभ तन प्रकट दिखाहिं॥८४॥
जौ न दूर दस हाथ हू तउ न इन्हैं संतोष।
दूरबीन दर दृग लखैं तुअ मुखचंद अदोष॥८५॥
बरजी पै ए ना रहे करजी भए अकाज।
रूप हेतु अरजी करी मरजी भई न आज॥८६॥
हा कुरंगनैनी अनी क्यौं बेधी जिय मोर।
मैं गरीब कैसी करौं कहा बिगारयौं तोर॥८७॥
बनी जहाँ लौ सुनि प्रिया सेवा करी तुम्हारि।
'सेवा करि मेवा मिलै' झूठी कहनि बिचारि॥८८॥
भोरी भोरी भौंह की गोरी कियो विसास।
सो विच्छू के डंक लौ लागी बिना उसास॥८९॥
प्रथम लगन की जो कथा सो किमि बरनी जाय।
ना जानू कैसी भई अनहोनी जग आय॥९०॥
मैं तुहि शुद्धि सुभाव सों रह्यौं निरखि दिन रैन।
तू उलटो जादू कियो तकि मारयौ शर नैन॥९१॥
लखत लखत अभिलाष जिय बाढ़यौ प्रति दिन चाव।
बिनु देखे मन ना रह्यौ कर अपने अपनाव॥९२॥
तुहि बैठे इक दिन लख्यौ मुग्ध रूप अभिराम।
करि परिहास सुमीत इक कह्यौ “तिहारी वाम”॥९३॥
वा दिन ही मो मन मुह्यौ रह्यौ न तनिक विकार।
सहज भाव लखि कै भलें जिय में लियो विचार॥९४॥
पै तेरे जग को कहै कौन जगत परवीन।
नारि चरित अवगाहिबे भए सकल इत दीन॥९५॥
तू पुनि आय सँजोग किय सपने दिवस अकाज।
कौन बैर बसते कियो भुज बंधन तजि लाज॥९६॥
राई सो तिल तिलहिं सो जौ जो सो गोधूम।