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श्यामास्वप्न


कर पकरत हिय सों लगी लिय कपोल पुनि चूम॥९७॥
इत हूं अभिलाषा बढ़ी बोलन चाह्यौ बैन।
कर सरीर परसन चह्यौ दरसन चाह्यौ नैन॥९८॥
अधरासव अधरन चह्यौ उरहु चह्यो उर लागि।
चह्यौ श्रौन सुनिबे वचन मधुर मधुर रस पागि॥९९॥
दिन में छिन दरसन भए तो मान्यौ जिय चाव।
पुनि दिन दिन दो चारु अरु पाँच बेरहू भाव॥१००॥
देखे बिनु फिर ना रहे कल न पय्यो पल नैन।
रात द्यौस लेखो लग्यौ तलफत मिलो न चैन॥१०१॥
जदपि मौन हमसे अधिक गह्यौ गरूरि जरूरि।
तौहू मेहदी रंग लौ अंत गयो मन रूरि॥१०२॥
उठनि हँसनि बतरानि अरु निरखन चलन सुजान।
जौ न आगमन प्रति दिवस तऊ गए सब जान॥१०३॥
चंद कहा हाथन दुरै चाँदनि कै पट माहिं।
सूरज किमि छत्रहिं छिपै ढोल छिपै घर नाहिं॥१०४॥
जौं मयंक छिति सों कई कोस लाख लौ दूर।
तौंहू अंक लखात इत तू किन जीवन मूर॥१०५॥
जौ सूरज घन चंद्रमा बसहीं दूर अकास।
कमल कलापि कुमोदिनी छिति रहि प्रीति प्रकास॥१०६॥
तेल बूँँद जल लौ कढ़े एक दिवस यह प्रीति।
मूल सुवट लौ भिदत छिति याकी अचरज रीति॥१०७॥
हम दोउन को बोलिबो हँसिबो मजन नीर ।
सहि न सके इत के सुजन उठी जु तिन उर पीर॥१०८॥


॥ समाप्त ॥