पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/२३

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जो पद्माकर के इस सवैये की प्रतिध्वनि जान पड़ती है:

ये अलि या बलि के अधरानि में आनि चढ़ी कछु माधुरई सी
ज्यों पदमाकर माधुरी त्यों कुच दोउन की चढ़ती उनई सी।
ज्यों कुच त्यों ही नितम्ब चढ़े कछु ज्यों ही नितम्ब त्यों चातुरई सी ।
जानि न. ऐसी चढ़ा चढ़ी में कहि धौ कटि बोच ही सृटि लई सी ॥

इसी प्रकार कवि के इस वर्णन में:

लंक के लूटने की शंका केवल कुच और नितम्बों की थी क्योंकि जोबन महीप ने जब इस द्वीप पर.अमल किया तब डंका बजाकर क्रम से केवल ये ही बढ़े. (पृ० २८)

आलम-शेख तथा बिहारी के निम्नांकित दोहों का प्रभाव स्पष्ट है:

कनक-छरी सी कामिनी काहे को कटि छोन ?
कटि को कंचन काटि बिधि, कुचन मध्य धरि दीन ।
अपने तन के जानि के जोबन नृपति नवीन ।
स्तन, मन, नैन, नितम्ब को बड़ो इजाफा कीन ।।

और श्यामा के उरोजों का वर्णन करता हुआ जब कवि लिखता है :

मदन के मानौ उलटे नगारे हों, मदन महीप के मंदिर के मानो दो हेम कलस, बेल फल से सुफल-ताल फल से रसीले, कनक के कंदुक-मनोज-बाल के खेलने की गेर्दै--ऐसे अविरल जिनमें कमल तंतु के रहने का भी अवकाश नहीं.(पृ० २७)

तब ऐसा जान पड़ता है कि उसके मानस में प्राचीन कवियों की इस प्रकार की उक्तियाँ तैर रही थीं:

कैसे रतिरानी के सिंधोरे कवि 'श्रीपति' जू,

जैसे कलधौत के सरोरुह सवारे हैं।