पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ३० )

फलिहै कुसमै नहिं कोटि करो तरु केतिक नीर सिचौ रतियाँ।"
जगमोहन वे सपने सी भई सु गई तुअ नेह भरी बतियाँ ॥

(पृ० १७४)
 

परंतु जहाँ यह सरसता और स्वाभाविकता नहीं है वहाँ शब्दालंकारों का चमत्कार और चित्रकाव्य का कौशल भी प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए देखिएः

लागैगो पावस अमावस सी अंध्यारी जामे
कोकिल कुहुकि कूक अतन तपावैगो।
पावैगो अयोर दुःख मैंन के मरोरन सो,
सोरन सो मोरन के जिय हू जलावैगो ।
लावैगो कपूरहू की धूर तन पूर घिसि
भार नहीं कोऊ हाय चित्त को घटावैगो।
ठावैगो वियोग जगमोहन कुसोग आली
बिरह समीर बीर अंग जब लागैगो ॥ (पृ० ११७)

इसमें वर्षाऋतु में प्रकृति क उद्दीपन विभाव के रूप में सुंदर वर्णन तो है ही साथ ही यमक और अनुप्रास को छटा भी दर्शनीय है;और चित्रकाव्य के रूप में सिंहावलोकन का निर्वाह है। प्रथम चरण के अंतिम शब्द 'तपावैगो' के 'पावैगी' से द्वितीय चरण का आरंभ होता है और द्वितीय चरण के अंतिम शब्द 'जला-वैगो' के 'लावैगो' से तीसरे चरण का आरम्भ होता है । इसी प्रकार तीसरे चरण के अंतिम शब्द 'घटावैगो' के 'टावैगो' के स्थान पर 'ठावैगो' से चतुर्थ चरण का आरंभ है और चतुर्थ चरण के अंतिम शब्द 'लागैगो'से कवित्त के प्रथम चरण का आरम्भ है । इस प्रकार सिंहावलोकन चित्रकाव्य का पूर्ण निर्वाह है। यह सिंहावलोकन कवि को विशेष प्रिय जान पड़ता है क्योंकि अनेक सवैयों में कवि ने इस चित्रकाव्य को प्रदर्शित किया है । एक अन्य उदाहरण देखिए: