को रन पावस जीति सकै लहकारै जबै इत मोरन सोरन ।
सोरन सो पपिहा अधरात उठे जिय पीर अधीर करोरन ।
रोरन मेघ चमकत बिज्जु गसे अब नैन सनेह के डोरन ।
डोरन प्रेम की आय गहो जगमोहन श्याम करो दृग कोरन ॥
छंदों में ठाकुर जगमोहन सिंह को दोहा, सवैया, कवित्त, कुंडलिया, सोरठा, और बरवै विशेष प्रिय हैं । 'ऋतुसंहार' की भूमिका में उन्होंने दोहा और कुंडलिका के प्रति अपने विशेष अनुराग का निर्देश किया है। प्रकृति-वर्णन के लिए उन्होंने कुंडलिका (कुंडलिया) का विशेष प्रयोग किया है।
गद्य में भी 'श्यामास्वप्न' के रचयिता ने यमक और अनुप्रास का विशेष कौशल प्रदर्शित किया है। 'श्यामास्वप्न' का प्रारंभ कवि ने ऐसी ही भाषा से किया है :
आज भोर यदि तमचोर के रोर से, जो निकट की खोर ही में जोर से सोर किया, नींद न खुल जाती तो न जाने क्या क्या वस्तु देखने में आती. इतने ही में किसी महात्मा ने ऐसी परभाती गाई कि फिर वह आकाश सम्पत्ति हाथ न आई ! वाहरे ईश्वर ! तेरे सरीखा जंजालिया कोई जालिया भी न निकलैगा . तेरे रूप और गुण दोनों बर्णन के बाहर हैं ! आज क्या क्या तमाशे दिखलाए, यह तो व्यर्थ था क्योंकि प्रतिदिन इस संसार में तू तमाशा दिखलाता है ही . कोई निराशा में सिर पीट रहा है, कोई जीवाशा में भूला है, कोई मिथ्याशा ही कर रहा है, कोई नैन के चैन का प्यासा है, और जलविहीन दीन मीन के सदृश तलफ रहा है-(पृ० ५)
इसमें भोर, तमचोर, रोर, खोर, जोर और सोर; जंजालिया और जालिया; निराशा, जीवाशा, मिथ्याशा और प्यासा ; नैन और चैन; तथा विहीन, दीन औरमीन के यमक के अतिरिक्त 'इतने ही में से लेकर
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