पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/३८

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नल-दमयंती, दुष्यंतशकुंतला, राधाकृष्ण, विद्यासुंदर-इत्यादि गांधर्व विवाह के अनेक उदाहरण मिलैंगे-(पृ. ९०-६१)

यह विचार-धारा केवल जगमोहन सिंह की ही नहीं भारतेन्दु युग की थी । उस समय, बाल-विवाह, बहुविवाह, अनमेल विवाह आदि के विरुद्ध और विधवा-विवाह के पक्ष में शिक्षित जनता का आग्रह बढ़ता जा रहा था । ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने प्राचीन ग्रंथों का प्रमाण देकर विधवा-विवाह को शास्त्र-सम्मत प्रमाणित किया । इसो प्रकार गंधर्व विवाह के पक्ष में भी शिक्षित लोगों का मत अनुकूल होता जा रहा था। भारतेन्दु युग के कुछ नाटकों में इस प्रकार की आवाज़ उठाई. जा रही थीं। लाला श्रीनिवासदास रचित 'तप्ता संवरण' नाटक (रचना सन् १८७४ ई०) में पंचम अंक में सूर्य भगवान द्वारा वशिष्ठ मुनि से कहलाया गया है :

संसार मैं बेटी या बेटा दो पदार्थ है पर बेटा अपने घर में रहता है और बेटी दूसरे घर मैं . माता पिता को अधिकार है कि बेटी किसी के साथ कर दें पर जो लोग बेटी का दुख सुख नहीं देखते वो अपनी बेटी को जन्म भर का दुःख देते हैं . हमारे वंशवालों ने कन्या की प्रसन्नता के लिए स्वयंबर की रीति रक्खी है पर गंधर्व विवाह उस्सै भी उत्तम है.( तप्ता संवरण प्रथम संस्करण १८८३, खगविलास प्रेस बांकीपुर पृ० ३८)

इसी प्रकार रति कुसुमायुध' रूपक (रचनाकाल १८८५ ई०) में भी विवाह के संबंध में इस प्रकार मत प्रकट किए गए हैं :

माधुरी-हाँ हम भी इसी शुभ घड़ी की प्यासी थीं पर वेदोक्त

पाणिग्रहण हुए बिना हमारा क्या बस है ?

मनोहर-क्यों क्या गंधर्व रीति से ब्याह करना अनुचित है ?