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आदर्श उपस्थित करते हुए अंत में कवि ने पंचतंत्र और हितोपदेश तथा भर्तृहरि और शंकराचार्य के स्वर में स्वर मिलाकर यह भी लिख दिया है:
पढ़ि यह स्वप्न बिचारि लीजिए कितने दुख की खानी।
नारी अहै जगत पुरुषन कों कहिए कथा बखानी।
शंभु स्वयंभू हरि हू जाके बल प्रभाव रुख हेरे।
ते इन मृगनैनिन के घर के सदा दास अरु चेरे।
पै यामें कछु शक नहिं रंचुक नारि नरक सोपाना।
जियत देय दुख दारुन देहिन मरे न कछू ठिकाना॥
यासों बार बार कर जोरे कहहुँ देखि सब रंगा।
विषपूतरि सम वाहि तरकिए तजि वाको परसंगा॥
स्वच्छंद और आदर्श प्रेम के उपसंहार-स्वरूप यह निराशा का स्वर नारी-निन्दा के रूप में प्रकट हुआ है जो मध्यकालीन संतों की प्रतिध्वनि मात्र है।
दुर्गाकुंड, बनारस। | श्रीकृष्ण लाल |
१ फरवरी, १९५४ ई° |