पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/४४

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रटैंगे-'मकरंद' कोकिल सदा हितके मीठे बोल बोलैंगे-और दुर्जन द्विरेफ दारुण झंकार के मचाने में कभी न चूकैंगे—यह अपूर्व सरिता की धारा कभी न रुकैगी—अंत को प्रेमब्रह्मा के कमंडलु में समा कर हम दोनों को दैहिक दुःख और संसार के बंधन से मुक्त करैगी, अब दिन आ रहे हैं. ज्ञान का दीप भ्रमतिमिर को नाश करैगा और प्रतिदिन मार्ग सुगम होता जायगा. चिंता नहीं, इस संसार में तुम्हैं छोड़ और कोई मेरा सर्वस्व नहीं—तुम्हारा ही कहा करता हूँ.

"मिल्यौ न जगत् सहाय विरह चौरासी भटक्यौ"

तुम्हारे अद्वितीय पिता सरयूपारप्रदीप कविराजराजिमुकुटों के अलंकार के हीरे और मेरे गुरु श्रीपंडित गयादत्तमणि वैय्याकरण शेषावतार के चरणारविंद की दया जैसी मेरे पर रही तुम्हैं भलीभांति ज्ञात है. तुम कविशिरोमणि हो. इसको बांच के शोधन कर देना—और शुद्धभाव से इसे एक अपने जन की रचना जान और उनकी आन से अंगीकार कर लेना—बस

रायपुर, छत्तीसगढ़

केवल तुम्हारा,
जगन्मोहन सिंह.

२५ दिसंबर १८८५
मध्यदेश.