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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/४६

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श्यामास्वप्न

क्या प्रयोजन ! जो कहना है आरंभ करता हूँ-आज का स्वम ऐसा विचित्र है कि यदि उसका चित्र लिख लिया जाय तो भी भला लगै . कल्ह संध्या को ऐसी बदली छाई कि मेरे सिर में पीड़ा आई. जो कुछ बन पड़ा व्यालू करके लंबी तान अपने बिछौनों में जा अड़ा . लेटते देर न हुई कि नींद ने चपेट ही लिया . पहले तो ऐसा सुख लगा कि दुःख ही भगा . शीत की रात-अच्छे गरम और नरम विछौने सोने के लिए-“जाड़ा जाय रुई कि दुई"-इसी पुरानी कहावत को स्मरण रख नींद का सुख अनुभव किया • पलक झपने गी-अधखुली होकर बंद हो गई. कुछ काल तक स्मृति रही, जब तक स्मृति रही अपने कृत्य को शोचा, और फिर कुछ काल तक जगत का हाल बेहाल विचारते रहे अब नहीं जानते क्या हुए--कहाँ गए . स्मृति कहाँ विलानी-जी में क्या समानी, पानी कि पौन-इंट या पत्थर-मौन रहना पड़ा . जिधर देखा केवल शैल पर्वत ही देखे . मन में चिरकाल से ध्यान था कि यदि ईश्वर ज्ञान दे तो तन में से म्यान से तलवार की नाई भ्रम को निकाल अनन्य भाव से किसी पावन बिजन बन में धूनी लगा कर प्यारी श्यामा के नाम की माला टारै-जीवन भी हारै -तन मन धन सब वारै- बरन उस 'मनोरथ मंदिर की नवीन मूर्ति" के चरण कमल युगलों पर सुमन समर्पण करते करते अपने शेष दिन बितावे . गतागत इसी जोर में नींद की डोर ने मुझे फाँस कर गाँस लिया . गांसना क्या साक्षात् निद्राप्रियता ने मुझे गाढ़ालिंगन करके अपनी जुगल वाहलतिकाओं से फाँस अंक में अंकही की भांति लगा लिया . बस, देखता क्या हूँ कि मैं एक अपूर्व मनोहर भूमि पर विचरता हूँ, आमने सामने पर्वत, उत्तर भाग में एक बड़ी भारी नदी, कमल फूले हैं , कोकनद की पांती शोक को हटाती है . कुमुद भी एक ओर मुदयुक्त होकर निरख रहे हैं इधर चातक पी पी रट रट कर अपने पुराने पातक का प्रायश्चित्त करता है . उधर काली कोयल भी अमराइयों में पंचम सुर से गा रही है .