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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/५७

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श्यामास्वप्न

ऐसा कह उसने दीप उठाया और उस मंत्र की ओर चला. फिर भी सोचा--दास होने से मरना भला, क्या तीन पल बीत गये ? देखो पैर का शब्द सुनाता है, जो हो फिर भी कदाचित् वह पलभर और ठहरे-हाय ! मैं कैसे मरू मेरे तो अभी केवल २२ बसंत बीते हैं . उसका शरीर थरथराने लगा और मेधा चकरी हो गई अंत में उसने सब मनोरथों को एकत्र कर अपने नेत्र उस मंत्र की ओर फेके उसने कहा बस अब एक बार कष्ट कर पढ़लो और क्षणभर में सब कुछ और का. और हो जायगा नरक में तो जाना ही है .

इतना कह दीप को मंत्र के सामने उठा बड़ी शीबूता से यह मंत्र पढ़ा-

"ओम् अं गं भं शं मं पंगिं भां सूं ऋपात्मजां श्यां श्यामा श्यामसुंदरी जं जगत्पालिनी मं मनोमोहिनी सिं सिंहाधिरोहिणी अं रां भुजलतावकराठी लंक्षां मां अमुकीमाकर्षय अमुकी माकर्षयस्वाहा"

जिस समय यह उसके ओठे (ओठों) के बाहर हुआ एक मनुष्य का आकार सन्मुख खड़ा हो गया .

यह आकार कुछ भी भयानक न था वरन् शोचग्रस्त और चिंता- कुल सा कुछ जान पड़ा, मानो कोई आग उसके चित्त को निरंतर दहन करती हो. किंतु उसके चारों ओर ऐसा प्रकाश हुआ कि कारागार का अंधकार बिला गया. यह पुरुष का नहीं पर स्त्री का आकार था. यह डाइन थी, वह तो साक्षात् भगवती भगमालिनी का रूप है-चंडा मुंडा करा- लिनी. देखते नहीं उसके बड़े बड़े दांत किसको चर्वण न कर डालैंगे- "चर्वयत्यतिभैरवम्" रौरवंभी. उसके दंष्ट्राकराल के गोचर अनेक महा- पुरुष होकर कौर कर लिए गए. कुछ स्तुति तो करो "भगवति प्रेते ! प्रेतविमाने ! लसत्प्रेते ! प्रेतास्थिरौद्ररूपे ! प्रेताशिनि ! भैरवि ! नमस्ते !"

इतना कहते देर न हुई कि बस