सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८
श्यामास्वप्न

"काली करालवदना विनिष्क्रान्ताऽसिपाशिनी
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।
निमग्ना रक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा
सा वेगेनाभिपतिता घातयंती महासुरान् ॥"

इस प्रकार से और इस भांति भगवती डाकिनी शाकिनी उपस्थित हुईं, बंबई की किनारदार धोती पहने, मनुष्य का कपाल हाथ में, गटर-माला फटकारते, लंक लौ लटकती लंबी लटैं-लाल लाल नेत्र, अंतराल को सिर में लपेटे-नरास्थि की पुंगरी फूकती-बड़ी बड़ी लंबी टांगें फेकती दो सुंदरी एक ओर व्याही और एक ओर कुमारी कन्या को कांख में खोंसें थीं.

देवी ने कहा "मुझसे क्या चाहते हो ?” युवा बोला – “बचा, बचा, मुझे इस घोर कारागार से निकाल दे"-देवी बोली “मैं तुझे निका-लूँगी” और उसका हाथ पकड़ आकाश की ओर उड़ गई-वह युवा तो बेसुध हो गया . प्रातःकाल को जब जगा तो क्या देखता है कि अपनी पुरानी प्यारी सेज जो कविता कुटीर में थी उसी पर सोया है.आँख खोली और उसी प्राचीन ग्राम की गली देखी और जब उसके नेत्र उस कुटीर के (की) ओर पड़े तो उस कारागार के दुःखद पाषाणों के स्थान के (की)प्रतिनिधि अपनी वस्तु देखी एक टेबल पर कहीं कलम, कहीं स्याही, कहीं श्यामालता-कहीं सांख्य, कहीं योग-कहीं देवयानी के नूतन रचित पत्र इत्यादि पड़े हैं.बड़ा आनंद हुआ और युवा के नेत्र सजल हो आये,बोला "यह बड़ा भयानक स्वप्न देखा था ऐसा जान पड़ा कि मैं किसी निर्जन कारागार के भुंइहरे में छे मास तक रहा प्रतिदिन आशा आई और गई फिर देखा कि किसी मंत्र के प्रभाव से एक चुडैल ने आकर मुझे निकाला उसी समय राजदूत भी मुझे न्यायाधीश के पास ले जाने को आया था. हे ईश्वर तेरी महिमा अपरंपार है तूने कैसा स्वम दिखाया.अब मैं अपने प्राण के पास जाऊँगा और स्वप्न का सब ब्यौरा कह