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श्यामास्वप्न

झिल्ली की झनकार--भेक का एक-सा शब्द निशिचर विहंगमों का विहार मन को चुराये लेता था. संजोगियों को सुखद और वियोगियों को दुःखद जान पड़ता था ; संजोगियों का निधुवन प्रसंग और वियोगियों के विरह का कुढंग अपनी आँखों से देख देख साक्षी भरता था . इधर सारसों का जोड़ा उधर चकवा चकई का विछोड़ा संयोग और वियोग का उदाहरण दिखाता था , रात के कारण और सब पक्षी बसेरे में थे केवल उलुक से बेकाज के मनुष्य इधर उधर घूमते थे . इस समय देवजी का कहा याद पड़ा-

मंद मंद चढ़ि चल्यौ चैत निशि चंद चारु
मंद मंद चाँदनी पसारत लतन तैं ।।
मंद मंद जमुना तरंगिन हिलोरै लेत
गुंजत मलिंद मंद मालती सुमन तैं ।।
देव कवि मंद मंद सीतल समीर तीर
देखि छवि छीजत मनोज छन छन तैं ।।
मंद मंद मुरली बजावत अधर घरैं
मंद मंद निकसो गुविंद वृंदावन तैं ।।

और भी--
 

घटै बढे विरहिनि दुखदाई । ग्रसै राहु निज संधिहिं पाई ॥
कोक शोकप्रद पंकज द्रोही । अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ।।

प्रकाश का पिंड धीरे धीरे मही मंडल में अपनी कीर्ति प्रकाश कराता है . बड़े सघन लतामंडप के भीतर भी पत्रों के छेदों से चाँदनी की किरणें प्रवेश करती हैं . मैंने इस शोभा का, प्यारी चैत की रातों में कभी प्यारी के सहित कभी प्यारी से रहित नदी तीर में भीर निकल जाने के पीछे कई बार अनुभव किया है . ऊपर चाँदनी का स्वच्छ वितान, नीचे जल की चमक-इधर बालू की सुपेदी, उधर क्षितिज तक