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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/६३

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श्यामास्वप्न

इसका फैलोव-ऐसा जान पड़ता है मानौ पृथ्वी और अम्बर एक-सा हो चंद्रमा का बिंब जल की लोल तरंगों के भीतर ऐसा दिखलाई देता है मानौ सहस्र नेत्रों से वह मूर्त्तिमान् हो मदन के साथ इस अपूर्व शोभा का अनुभव करता हो . जल जंतु भी ऐसे हर्पित होते हैं कि नक्र कुलीर सफरी इत्यादि उछल उछल कर इस शोभा पर अपने प्राण देते हैं . यह व्यौम का दृश्य भूलोकगत जनों को भी भाग्यवश दिखाई पड़ता है . पर हा ! क्या वह इस समय हमसे वियुक्त रहै--हाय ! “दुर्बले दैवघातकः" यह कहावत प्रसिद्ध है-दिशा कामिनियों का मुकुर-मदन के बाणों को चोखा करने की शान-भगवान् उमापति के ललाट का अलंकार-व्यौम सागर का एक हंस-तारागणों के मध्य में ऐसा सोहता था मानौ दिक्कामिनी चंद्र प्रियतम पर पुष्पवृष्टि करतीं थीं--शंख, क्षीर, मृणाल, कर्पूरादिकों की प्रभा को लजाता समुद्र को आकर्षण करता-जीव मात्र स्थावर जंगम को सुख देता और लोकों के पाप को नाश करता हुआ विराजमान है . संसार में जो लक्ष्मी मंदरा- चल में-प्रदोष के समय सागर में जल सहित कमलवन में-वास करती है वही लक्ष्मी आज निशा के समय निशाकर में देख पड़ने लगी . वाह रे चंद्र ! तेरी महिमा कौन लिख सक्ता है .

तू अपनी चंद्रिका के द्वारा इतने ऊँचे पर से भी बिचारी चकोरी की चोंच को सुधा से भर देता है-

तू अभिसारिकाओं का भी बड़ा मीत है-देख एक कवि ने कैसी कविता की है--

"चतुर चलाक चित्त चपला सी चंदमुखी
गिरिधरदास वास चंदन सी तन में।
सारी चाँद तारे की सुचद्दर चमकदार
चोली चुस्त चुभी चारु चंपकवदन में ।