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श्यामास्वप्न

दशन की अवली लाल ओठों के बीच में ऐसी जान पड़ती थी मानो मानिक के पल्लच में हीरे बगरे हों, विद्रुम के बीच में जैसे मोती धरे हों, प्रवालों के बीच सुमन अथवा ललाम लाल लाल पल्लवों पर ओस के कनूके हों.

मुसकिराहट के साथ ही चाँदनी चाँद की मंद पड़ जाती थी . निरखनेवालों की आँखें बिजुली की चकाचौधी के सदृश ढंप जाती थीं . नव जोवन का एक यह भी समय है जब लोग भोली हँसी पर तन मन वार देते हैं अथवा उसके सन्मुख बैकुंठ का भी सुख कुंठ समझते हैं . उसकी कंबु या कपोत सी ग्रीवा मृणाल की नम्रता को भी लजाती थी, उसके दोनों स्कंध प्रेम और अनुराग सम्हारने को बनाए गए थे , उसके पीन कुच पर छूटे चिकुर ऐसे लगते थे मानो चंद्रमा से पीयूष को ले व्यालिनी गिरीश के शीस पर चढ़ाती है . मदन के मानौ उलटे नगारे हों, मदन महीप के मंदिर के मानो दो हेम कलस, बेलफल से सुफल-ताल फल से रसीले-कनक के कंदुक-मनोज-वाल के खेलने की गैंदें-ऐसे अविरल जिन में कमल तंतु के रहने का भी अवकाश नहीं . गरमी में शीतल और शीत में ऊष्म ऐसे अग्नि के आगार जिसको हृदय से लगाते ही ठंढे पर दूर से दहन करने वाले–शरीर सागर के दो हंस- पानिप पानीके चक्रवाक मिथुन - कमल की कलीं-मन मानिक के गह्वर शैल जिन पयोधरों को विश्वकर्मा ने अपने हाथों से खराद पर चढ़ा कर इस त्रिभुवन मोहिनी के तनतरु के मनोहर और मधुर फल थे . पतन के भय से मदन ने इनपर चूचुक के छल से मानो कीले ठठा र्दी थीं . बस कहाँ तक कहूँ .

इनके नीचे नवयौवन के चढ़ने के हेतु मनोज की सीढ़ी सी त्रिवली की अवली शोभित थी . अमृतरस का कूप नाभी का रूप था.

उसकी कटि छटिकर छल्ला सी हो गयी थी केहरी भी जिसे देख अपने घर की देहरी के बाहर कभी नहीं निकला , ऐसी सुकुमारी जो बार के रचा था