सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९
श्यामास्वप्न

"काको मन बाँधत न यह जूड़ा बाँधनहार"

और चोटी के अंत में कदम्ब का फूल देखने वालों के हिए में कटारी सी हूल देकर करेजे में शूल उपजाता था . घन केशपाशोंपर दामनी दामनी सी छटा छहराती थी..

"तमके विपिन में सरल पंथ सातुक को
कैधौं नीलगिरि पै गंगा जू की धार है ।
कैधौं बनवारी बीच राजत रजत रेख
कैधौं चंद कीन्हौ अंधकार को प्रहार है।
नापत सिंगार भूमि डोरी हाँसरस कैधौं
वलभद्र कीरत की लीक सुकुमार है ।
पयकी है सार घनसार की असार मांग
अमृत की अापगा उपाई करतार है॥"

यह तो उसके माँग का हाल था . उसकी बेसर की महिमा कौन विचारा कह सक्ता है , तो भी इस प्रकार की कुछ शोभा थी .

एहो व्रजराज एक कौतुक विलोको अाज
भानु के उदै में बृषभानु के महल पर ।
बिनु जलधर बिनु पावस गगन धुनि
चपला चमकै चारु घनसार थल पर।
श्रीपति सुजान मनमोहन मुनीसन को
सोहै एक फूल चारु चंचला अचल पर।
तामें एक कीर चोंच दावे है नखत जुग
शोभित है फूल श्याम लोभित कमल पर ।।

अथवा यह जान पड़ता था कि पृथ्वी की गोलछाया चंद्र पर पड़ी है . नाक का मोती ऊपर कजरारे लोचन के प्रतिबिंब से और नीचे प्रवाल अधरों की आभा से आधा श्याम और आधा लाल जान पड़ता है-यदि लाल गुजा की उपमा दी जाय तो भी संगत हो . सादी सादी सूरत