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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/७०

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श्यामास्वप्न

भोली भाली भौहैं-मनुष्यों के हिए में मूरत सी गड़ गई थी, मुख निशाकर पर शीतला के छोटे छोटे बिंदु ऐसे जान पड़ते थे जैसे देव ने

"भाग भरे आनन अनूप दाग सीतला के,
देव अनुराग झिया से झमकत है।
नजर निगोड़िन की गड़ि गड़ि गाड़े परे,
भाड़े करि पैन दीठ लोभ लपकत है
जोबन किसान मुख खेत रूप बीज बोयो,
वीज भरे बूंदन अमंद दमकत है।
वदन के बेझे पै मदन कमनैती के,
चुटारे सर चोटन चटा से चमकत है ।।"

चाँदतारे का दुपट्टा पीत कौषेय की सारी यद्यपि भारी थी तो भी समय के अनुसार कुछ कुढंग नहीं लगती थी. आधा सिर खुला, दक्षिणी रीति के बसन पहिने, अति सुकुमार रति का रूप . दूर से देख मेरे मुख से अकस्मात् यह निकल पड़ा कि यह "वनज्योत्स्ना" किस श्यामा का रूप है . मैंने तो ऐसी मोहिनी मूरति कभी नहीं देखी थी . यद्यपि मेरी आयु अभी दो हजार आठ सौ वर्ष से अधिक न थी तो भी यह मदन मोहिनी कीसी और पहले कोई ललना नहीं लखी थी. मेरी इच्छा हुई कि इसके चरण युगलों की यदि आज्ञा हो तो सेवा कुछ दिन करूँ. इसी सोच विचार में चार हजार बरस व्यतीत हो गये . अंत को जब आँख खुली तो फिर भी उसी मूरत का ध्यान, वही सामने खड़ी, वही आंखों में झूलने लगी. विमान तो आज्ञाकारी था. मन में सोचते ही उसी की ओर मुड़ा निकट जाने से और भी चरित्र देखे . यह “मनोरथ-मंदिर की नवीन मूर्ति" नवनीत से कोमल सिंहासन पर बैठी है--इसकी तीन सखी निरंतर सहचरी होकर इसके सुख दुःख की भागिनी सी बनी