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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/७३

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श्यामास्वप्न

कि विमान डगमगाने लगा कहीं सिर कहीं धड़ कहीं टोपी कहीं जूते रातदिन का ज्ञान चला गया, न जाने किस मंदराचल के खोह में उलूक के समान जहाँ बेप्रमान अंधकार है जा छिपा . निकट जाने का विचार करते ईश्वर ने क्या अनाचार कर दिया कि सोचा विचारा सब नष्ट हो गया . पर यह तो घर की खेती थी . उस फूस ने तो सभी युक्तियाँ बतलाही दी थीं अब कुछ चिंता की बात नहीं थी. मैं ने सोचा कि जहाँ फिर एक गोता लगाया तहाँ ज्ञान और भान का पोता का पोता गगन गंगा के सोता से निकला चला आवैगा फिर कोई सोता भी हो तो जाग जाय, पहरे की बात नहीं . इतनी नहरें कि उसकी लहरै बड़ा शब्द करती हैं . फिर तो "प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम्' यह गगनगंगा कहाँ से आई इसका कुछ ठीक पता नहीं लगता . पर सुनते हैं कि महादेव नंगा के जो सदा भंग में मग्न है झंगा से निकलती है पर इसका क्या प्रमाण ?

पुराण.

पुराण-सुराण क्या ?

वाहजी ! कुराण ( पुराण ) नहीं जानते .

नहीं.

तो अधिक क्या कहैं, गंगा उस नंगा के जटाजूट में छूट कर नाचती है, फिर मर्त्यलोकवासी सत्यानासी उसके कनूकों को लूट कर क्षीरसागर के वासी होते हैं . वहाँ उन्हें साक्षात् लक्ष्मी जी की झांकी होती है.

क्या वे वहां अकेली रहती हैं ?

नहीं रे मूर्ख, क्या तू ने अभी तक लक्ष्मी को नहीं जाना, वह कभी अकेली रहीं हैं कि रहेंगी, वे बड़ी चंचला हैं . भगवान् शेषशायी श्यामसुंदर के साथ शयन करती हैं . लिखा भी तो है "एका भाऱ्या