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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/७२

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श्यामास्वप्न

मैंने इनके रूप भली भाँति अनिभिष नयनों से देखे पर स्वप्र में भी स्मरण न हुआ कि इन्हें पहले कभी देखा था. बार बार यही कहना पड़ा- -'अहो मधुरमासां दर्शनम्." उस एकादश वार्षिकी कन्या का रूप भी विचित्र था. सांवरा मुख--काले नैन और काले चिकुर--वाल्यावस्था की भूमि में मदन किसान ने ऐसा श्रम किया था कि यौवन बीज की (के) अंकुर निकल रहे थे • बालापन में भी चतुराई, कुंद सी हंसी भुराई और चतुराई दोनों सूचन करती थीं, आंखें अमृत और विष की कटोरी थीं, आंचर यद्यपि सामान्य रीति से नहीं ढांकती थी तो भी किसी किसी को देख अनेक हाव भाव करती थी . बालक और बालिकाओं के क्रीडा-स्थल पर जाती पर कभी किसी को देख सुसकिराकर और लाज बताकर घर में छिप जाती. सब बातें जो रसीली नवोढ़ा जानती हैं--यद्यपि उसै इनका तनिक भी अनुभव न था वह जानती थी, मानौ काम की चटशाल में उसने हाल में रति की परिपाटी ली हो . रस का अनुभव कुछ नहीं तो भी सुन सुन के अभी से परिपक्व हो रहीं थी . रस की बातें सुन कर ऐसी मुसकिराती कि अधर पल्लव के बाहर मुसकिरान कभी नहीं निकलती . प्रेम की घाँत सुन मुंह नीचा कर लेती . फल मूल मिष्ठान्न आदि उसको बहुत अच्छे लगते थे. रजतलोह की चुम्बक, मतलब की पुरी, काम की धुरी नेह में जुरी मानौ किसी ने उसी की डुरी से बाँध दिया हो .

तीसरी कन्या, रूप की धन्या, यद्यपि केवल ६ वर्ष की तो भी कुशल और प्रवीनता की अंकुर सी जनाती थी .

इन दोनों को देख मन में यही उठता कि "होनहार विरवान के होत चीकने पात" जिनके रूप के केवल अवलोकन मात्र ही से इतने गुणों का संभव और अनुमान होना प्रत्यक्ष है तो चरित न जाने कैसे कैसे होंगे, यही बड़ी देर तक सोचता रहा जी में आया कि निकट जाकर उस लक्ष्मी का जो ऐसी पश्यन्मनोहरा उस पर्वत के शिखर पर आर्विभूत हुई थी कुछ वृत्तांत पू0 और सुनें. इतने ही में ऐसी पवन चली .