पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
श्यामास्वप्न

"मुझ अभागिन की कहानी भी क्या किसी को सुहानी है परंतु तुम्हारा यदि आग्रह है तो सुनो . मैं शुद्धभाव से तुम्हारे सन्मुख सब यथास्थित कहती हूँ" इतना कह कई बार लंबी लंबी सांसें भर आकाश की ओर दृष्टि कर यौं बोली.

"भूमंडल में जो आखण्डल के चाप के सदृश गोलाकार है जंबू द्वीप नाम का प्रदीप जो दीपक समान मान को पाता है प्रसिद्ध क्षेत्र है. उसी-में भारतखंड, ऐसा विचित्र मानो ब्रह्मा ने स्वयं अपने हाथों से बनाया हो वर्तमान है . भारतखंड में अनेक खंड हैं पर आर्यावर्त सा मनोहर और कोई देश नहीं . पृथ्वी के अनेक द्वीप द्वीपांतर एक से एक विचित्र जिनका चित्र ही मन को हर लेता है वर्तमान है पर आर्यावर्त सी पुण्य भूमि न तो आँखों देखी और न कानों सुनी . इसके उत्तर भाग की सीमा में हिमालय सा ऊँचा पर्वत जो पृथ्वी के मान दण्ड के सदृश है भूलोक मात्र में ऐसा दूसरा नहीं. गंगा और यमुना सी पावन नदी कहाँ हैं जिनके जल साक्षात् अमृतत्व को पहुँचानेवाले हैं. त्रिपथगा की जो आकाश, पाताल और मर्त्यलोक को तारती है, कौन समता कर सक्ता है . सुर और असुरों के मुकुटकुसुमों की रजराजि की परिमलवाहिनी, पितामह के कमण्डलु की धर्मरूपी द्रवधारा, धरातल में सैकड़ों सगरसुतों को सुरनगर पहुँचाने की पुण्य डोरी-ऐरावत के कपोल घिसने से जिसके तट के हरिचंदन से तरुवर स्यन्दन होकर सलिल को सुरभित करते हैं, लीला से जहाँ की सुर सुंदरियों के कुचकलशों से कंपित जिसकी तरल तरंग हैं नहाते हुए सप्तर्षियों के जटा अटवी के परिमल की पुन्यवेनी-हरिणतिलक--मुकुट के विकट जटाजूट के कुहर भ्रांति के जनित संस्कार की मानो कुटिल भौंरी, जलदकाल की सरसी, गंध से अंध हुई भ्रमर माला, छंदोविचित की मालिनी, अंध तमसा रहित भी तमसा के सहित भगवती भागीरथी हिमाचल की कन्या सी जगत् को पवित्र करती हुई, नरक से नरकियों को निकारती इस असार संसार की असारता को सार करती है.