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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/७९

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श्यामास्वप्न

इसके दक्षिण विंध्याचल सा अचल उत्तर और दक्षिण को नापता भगवान् अगस्त्य का किंकर दंडवत् करता हुआ विराजमान है . इसके पुण्य चरणों को धोती मोती की माला के (की) नाई मेकलकन्यका बहती है, यह पश्चिमवाहिनी, जिस्की सबसे विलग. गति है, अपनी बहिन तापती के साथ होकर विंध्य के कंदरों की दरी में तप करती, सूर्य के ताप से तापित, सौतों के सदृश अपने बहुवल्लभ सागर से जा मिलती है . नर्मदा के दक्षिण दंडकारण्य का एक देश दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध है .

याही मग है कै गए दंडकवन श्रीराम ।
तासों पावन देश यह विंध्याटवी ललाम |
विंध्याटवी ललाम तीर तरुवर सों छाई ।
केतकि कैरव कुमुद कमल के वरन सुहाई ।
भज जगमोहन सिंह न शोभा जात सराही ।
ऐसो वन रमनीय गए रघुवर मग याही ।।
शाल ताल हिंतालवर सोभित तरुन तमाल ।
नव कदंब अरु अंब बहु विलसत निम्ब विशाल ।
विलसत निम्ब विशाल इंगुदी अरु आमलकी ।
सरो सिंसिपा सीसम की शोभा शुभ झलकी ।
भन जगमोहन सिंह दृगन प्रिय लगत प्रियाला ।
वर जामुन कचनार सुपीपर परम रसाला ।।
डोलत जहँ इत उत बहुत सारस हंस चकोर ।
कूजित कोकिल तरु तरुन नाचत जहँ तहँ मोर ।
नाचत जहँ तहँ मोर रोर तमचोर मचावत ।
गावत जित तित चक्रवाक विहरत पारावत ।
भन जगमोहन सिंह सारिका शुक बहु बोलत ।
बक जल कुक्कुट कारंडव जहँ प्रमुदित डोलत॥