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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/८०

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श्यामास्वप्न

बहत महानदि, जोगिनी, शिवनद तरल तरंग ।
कंक ग्ध्र कंचन निकर जहँ गिरि अतिहिं उतंग ।
जहँ गिरि अतिहि उतंग लसत शृंगन मन भाए ।
जिनपै बहु मृग चरहिं मिष्ठ तृन नीर लुभाए ।
सघन वृच्छ तरुलता मिले गहवर धर उलहत ।
जिनमें सूरज किरन पत्र रंध्रन नहिं निवहत ।

मैं कहाँ तक इस सुंदर देश का वर्णन करूँ . कहीं कहीं कोमल कोमल श्याम-कहीं भयंकर और रूखे सूखे वन-कहीं झरनों का झंकार, कहीं तीर्थ के आकार-मनोहर मनोहर दिखाते हैं . कहीं कोई बनैला जंतु प्रचंड स्वर से बोलता है-कहीं कोई मौन ही होकर डोलता है-कहीं विहंगमों का रोर कहीं निष्कूजित निकुंजों के छोर-कहीं नाचते हुए मोर-कहीं विचित्र तमचोर-कहीं स्वेच्छाहार विहार करके सोते हुए अजगर, जिनका गंभीर घोष कंदरों में प्रतिध्वनित हो रहा है-कहीं भुजगों की स्वास से अग्नि की ज्वाला प्रदीप्त होती है--कहीं बड़े बड़े भारी भीम भयानक अजगर सूर्य के (की) किरणों में घाम लेते हैं जिनके प्यासे मुखों पर झरनों के कनूके पड़ते हैं-शोभित है-

जहाँ की निर्झरिनी-जिनके तीर वानीर के भिरे मदकल कूजित विहंगमों से शोभित हैं-जिनके मूल से स्वच्छ और शीतल जलधारा बहती हैं और जिनके किनारे के श्याम जम्बू के निकुंज फलभार से नमित जनाते हैं-शब्दायमान होकर झरती हैं .

जहाँ के गिरि विवर कुहिरे के तिमिर से छाये हैं . इनमें से भालुनी थुत्कार करतीं निकलकर पुष्पों की टट्टियों के बीच प्रतिदिन विचरती दिखाई देती हैं . जहाँ के शल्लकी वृक्षों की छाल में हाथी अपना वदन रगड़ रगड़ खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के सीतल समीर को सुरभित करता है .