पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२
श्यामास्वप्न

ये वही गिरि हैं जहाँ मत्तमयूरों का जूथ वरूथ का वरूथ होकर वन को अपनी कुहुक से प्रसन्न करता है . ये वही वन की स्थली हैं जहाँ मत्त मत्त हरिण हरिणियों समेत विचरते हैं .

मंजु वंजुल की लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पता ऐसे सघन जो सूर्य की किरनौं को भी नहीं निकलने देते इस नदी के तट पर शोभित हैं .

कुंज में तम का पुंज पुंजित है, जिस्मै श्याम तमाल की शाखा निंब के पीत पत्रों से मिलीं हैं . रसाल का वृक्ष अपने विशाल हाथों को पिप्पल के चंचल प्रबालों से मिलाता है , कोई लता जम्बू से लिपट कर अपनी लहराती हुई डार को सबसे ऊपर निकालती है . अशोक के ललित पुष्पमय स्तबक झूमते हैं , माधवी तुषार के सदृश पत्रों को दिखलाती है, और अनेक वृक्ष अपनी पुष्पनमित डारों से पुष्प की बृष्टि करते हैं . पवन सुगंध के भार से मंद मंद चलती है केवल निर्झर का रव सुनाई पड़ता है कभी कभी कोइल का बोल दूर से सुनाता है और कलरव का कल रव निकटस्थित वृक्ष से सुनाई पड़ता है .

ऐसे दंडकारण्य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्पला जो नीलोत्पला की झाड़ी और मनोहर मनोहर पहाड़ी के बीच होकर बहती है कंकगृध्र नामक पर्वत से निकल अनेक अनेक दुर्गम विषम और असम भूमि के ऊपर से बहुत से तीर्थ और नगरों को अपने पुण्यजल से पावन करती. पूर्व समुद्र में गिरती है .

यच्छ्रीमहादेव पदद्वयम्मुहुर्महानदी स्पर्शति वै दिवानिशम् ।
तदेव तन्नीरमभूत्परं शुचि नवद्वयद्वीपपुनीतकारकम् ॥

इसी नदी के तीर अनेक जंगली गाँव बसे हैं . वहाँ के वासी वन्य पशुओं की भाँति आचरण करने में कुछ कम नहीं हैं. पर मेरा ग्राम इन सभों से उत्कृष्ट और शिष्टजनों से पूरित है-इसके नाम ही को