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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/८७

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श्यामास्वप्न

पाणि की बेटी मुरला से कराया . शारंगपाणि का कुल इस देश के ब्राह्मणों में विदित है, “यथा नामा तथा गुणाः" अतएव उनका कुछ बहुत विवरण नहीं किया , कुछ काल बीते मेरी माता गर्भवती हुई . इस समय मेरे पितामह काल कर चुके थे. अपने नातीपंती का सुख न देख सके अहल्या भी अनेक तीर्थों का सलिलबुंद पान करते-अपने तन को अनित्य जान तीर्थाटन में लग गई थी. इसलिए इस समय घर में न थी.नौ मास के उपरांत दशम मास में मेरे पिता के एक कन्या हुई, इसे लोग साक्षात् रमा का रूप कहते थे . यह जेठी कन्या थी . इसके अनंतर एक कन्या और हुई उसका नाम सत्यवती पड़ा . फिर कई वर्षों में भगवान् ने एक सुत का चंद्रमुख दिखाया . सब भवन में उजेला छा गया . गाजे बाजे बजने लगे जो कुछ बन पड़ा दान पुन्य भिखारी और जाचकों को दिया . पुन्नाम नरक के तारने वाले बालक ने मेरी माता की कोख उजागर की . पर हाय "मेटन हितु सामर्थ को लिखे भाल के अंक"-विधाता से यह न सहा गया , सुख के पीछे दुःख दिखाया- अर्थात् कुटिल काल ने इसे कवल कर लिया .

"धिक धिक काल कुटिल जड़ करनी
तुम अनीति जग जाति न वरनी"

माता बिचारी डाह मार मार कर रोने लगी. घर में छोटे बड़े और टोला परोसियों के उत्साह भंग हो गए. जितने लोग पहले सुखी हुए थे उस्से अधिक दुःखी हुए • आँसुओं से सब घर भर गया. पिता हमारे ज्ञानी थे, आप भी ढाढ़स कर सबों को जेठे की भाँति प्रबोध किया और बालक का मृतक कर्म करने लगे. काल ऐसा है कि दुस्तर दुःख के घावों को भी पुरा देता है, जो आज था सो कल न रहा , कल्ह सा परसों न रहा. इसी भाँति फिर सब भूल गए-पर पुत्रशोक अति कठिन होता है. पिता के सदैव इसका काँटा छाती में समा गया. कभी सुखी न रहे-