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श्यामास्वप्न

चित्त रहता काव्यकला ने हृदय का कपाट खोल दिया था बातें इनके ललाट ही से जान पड़ती थीं . सुडौल अंग अनंग के आलय थे . चिकने और काले काले बाल युवतियों के मन को काल थे . मधुर मधुर बोली हमारी हमजोली के मन को नवनीत सरीखा पिघला देती थी . इनकी चितवन से प्रेम और विश्वास प्रकट होते थे . बड़े गंभीर और धीर-नीर के सदृश स्वच्छ निष्कपट चित्त असंख्य वित्त के आगार- मुझे बहुत भले जनाते थे . कोमल कमल से कर-छोटी छोटी दाढ़ी और मूछे जवानी के आगम को सुचाती थी, विद्या और कविता तो इनके जिह्वा पर नाचती थी और इस दोहे को सार्थ करनेवाले इनमें सभी गुण थे-

"तंत्रीनाद कवित्त रस सरस राग रति रंग ।
अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग-॥"

देश देशांतर के पंडित और गुणी इनका नाम सुयश और दातृत्व सुन स्वयं आते और उनका यथोचित कालानुसार मान पान भी होता . इनका नाम श्यामसुंदर था . इनकी वय केवल २६ वर्ष की थी . ये हमारे परोसी थे . और मुझसे इनकी कुछ कुछ जान पहिचान भी रही. इस समय मेरी भी वय ठीक १४ की थी पर विद्यालाभ के कारन सभी बातें कुछ कुछ समझ लेती थी .

श्यामसुंदर मेरे परोसी होने के हेतु दिन में दो चार बार भेंट करते .मैं भी उन्हें अपना हितू और सहायक जान प्रायः बोलचाल करती थी . एक दिन प्रातःकाल को जब मैं स्नान करके अपने (नी) अटा पर चढ़ी बाल सुखा रही थी श्यामसुंदर अपने कविताकुटीर के तीर बैठा कुछ बना रहा था . मुझे नहीं मालूम क्या लिखता था . द्वार पर लता छाई थी और उसके पता के फैलाव से उसका मुख कुछ ढका और कुछ प्रकट था, ऐसा जान पड़ता था कि उस मंडप में अकेला गुलाब का फूल खिला