पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५५
श्यामास्वप्न

बहुत प्रीति दिखाई . फलादिक भोजन कराए और नवीन वस्त्र देकर एक सादो सी अंगूठी सत्यवती को दी. सत्यवती अपना भाग खुला जान बड़ी प्रसन्न हुई. घर आ पिता जी से सब कहा . श्यामसुंदर की उदारता कौन नहीं जानता था. दादा भी प्रसन्न हुए, और हम लोगों के श्यामसुंदर से समागम करने में तनिक रोक टोक नहीं करते थे . वरंच और भी हम लोगों को उनके पास आने जाने और गुण सीखने की आज्ञा दी. हम लोग सबके सब जब घर के काम से अवकाश मिलता उनके घर आया जाया करते . श्यामसुंदर ने बड़ी दया और मया दरसाई . हमलोगों की दरि- द्रता दूर कर दी. हमलोगों का कई बार बुला चुला के न्यौता करते अनेक भाँति की कथा सुनाते और अनेक गुन और कला भी कभी कभी बताते . काव्य और नाटकों की छटा बताई . सिद्ध पदार्थ का विज्ञान दरसाया रेखागणित और बीजगणित की परिपाटी सिखाई-मानों मेरे हृदय में विद्या का बीज बो दिया . चित्रकारी पर भारी वक्तृता करी का भाव बतलाया . मेघ और इंद्र की विद्या सिखाकर इन्हों के सजीव पुरुष या महेंद्र होने का भ्रम मिटाया . मैं बिचारी क्या जानूँ-ए सब बातें . यद्यपि ये सब बातें उन्होंने किसी विशेष पुस्तक से नहीं पढ़ाई तौ भी जब जब उन्हें अपने काम धाम से समय मिलता मेरे शून्य और अंधेरे हृदय में ज्ञान का बीज और दीप स्थापन करते. जितने विषय मैंने श्यामसुंदर से सीखे उतने पाठशाला में भी नहीं सीखे थे . हमारी शाला के गुरु यद्यपि बड़ी कृपा करके सिखाते तो भी मुझे इतना चाव उनके मुख से कोई बात सीखने में नहीं हुआ . जब श्यामसुंदर कोई विद्या का विषय कहता उसके मुख से मानो फूल झरते थे . जब कोई मेघदूत सा काव्य या शकुंतला सा नाटक सुनाता मेरे कानों में अमृत की धारा सी चुवाता . वृंदा भी मेरे साथ रहा करती और उसे मुझसे अधिक उनकी बातों को सुन रस का अनुभव होता . वह तो कभी-कभी छेड़ भी दिया करती थी पर सत्यवती और सुशीला खेल में लगी रहती थीं .