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श्यामास्वप्न

यह बात नैसर्गिक है . इतनी थोरी उमरवाली लड़की ऐसी ऊँची बातों में मन नहीं लगा सकती . यह उमर ऐसी ही है जिसमें सिवाय खुनखुना लह-गुड़ियों के और कुछ नहीं सुहाता .

जब जब मेरी और उनकी चार आखें होतीं मेरा बदन कदंब का फूल हो जाता-आँखों में पानी भर आता और तन में पसीने के (को) बूंद झलक उठते (ती). जॉधैं थरथरा उठतीं बदन ढीले ( शिथिल ) पड़ जाते और वसन शिथिल हो जाते थे . श्यामसुंदर भी कभी कभी कहते कहते रुक जाता-रसना लटपटा जाती . और की और बात मुँह से निकल परती . फिर कुछ रुक कर सोचता और कथा की छूटी डोर सी गह लेता . चकित होकर वृंदा की ओर देखता कि कहीं उसने यह दशा लख न ली हो . पर वृंदा बड़ी प्रवीन थी . बीच बीच में मुसकिरा जाती . सत्यवती भी कभी कभी कान देकर कोई कहानी सुना करती . ऐसे समय प्रतिदिन नहीं आते थे पर जब जब बैठक होती तीन चार घंटे से कम की कदापि नहीं होती थी . क्या करे श्यामसुदर को अपनी जमीदारी के कारबार से इतना अवकाश मिलना दुस्तर था धीरे धीरे उसका प्रेम बढ़ चला मेरे जी में प्रतिदिन प्रेम का अंकुर जम चला सोचने लगती कि कब उसे • जब तक वह अपने कुटीर में बैठता किसी न किसी व्याज से मैं उसे देख लेती . वे भी मेरे लिए मेरी देहरी पर दीठि दिए ही रहते . मेरे पैर की आहट को सुन तत्क्षण पलक के पाँवड़े बिछा देते . मेरे मुख को देख चकोर से प्यासे नैनों को बुझाते- पर यह सब ऐसी गुप्तता से हुआ कि घर के बाहर के वरंच परोसी भी कभी न जान सके . हाँ सेवकों के कभी कभी कान खड़े हो जाते-क्यौं कि रात दिन का झमेला एक दिन खुल ही पड़ता है-"अति संघर्ष करै जो कोई । अनल प्रकट चंदन से होई"-यह कहावत है . माता पित का कुछ इस बात पर लक्ष्य न था- -और मेरा भी मन का भाव अभी तक स्वच्छ था, पर बीज इसका बोया गया था और अभिनव अंकुर भी .