पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११०

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l Indi anRM-4-11-0-IAM-Apapm4 - 9 - mA-- JAAMRAJamai H - M- भक्तिसुधास्वाद तिलक । दो० “दशस्थ से दशगुन भगति, सहित तासु कृत काज । तुलसी सोचत बन्धु युत, राम गरीवनिवाज ॥१॥ मुए, मस्त, मरिहैं, सकल, घरी पहर के बीच । लही न काहू आजु लौं, गीधराज की मीच ॥ २॥ गोदसीस धरि, पितु सखा, जानि कृपा के धाम । झारी धूरि जटायु की, निज जटान सों राम ॥३॥" छप्पय । "भक्ति भूमि भूपाल श्रीदशरथ दश दिशि बिदित जस ।। मनुवपु में बहुभक्ति सुतपकरि ब्रह्म विलोके ।परमातम प्रिय पुत्र पाय सिया वधू विशोके ॥ फणि मणि इव जलमीन सरिस प्रभु प्रीति सुपागे । सत्य प्रेम के सीम राम बिछुरत तन त्यागे || कौशल्यापति पूज्य जगधर्मध्वज वात्सल्यरस । भक्तिभूमि भूपाल श्रीदशरथ दशदिशि विदितजस ॥१॥ वारिधि रस वात्सल्य की कौशल्या वेला मनहु ।। कृपा प्रीति प्रभु भक्ति सुकीरति सकल सकेली। विरचेउ चतुर विरंचि रामजननी मुदवेली ।। सीता सरिस स्वभाव धर्मधुरधरनि उदारा। भरतादिक को करनि रामते अधिक दुलारा ।। मातु सुमित्रा आदि सब रसरङ्ग बदै तेहि सम गनहु । वारिधि रस वात्सल्य की कौशल्या बेला मनहु ॥ २ ॥ (२३) श्रीअम्बरीषजी, महाराज महारानी। (४८) टीका । कवित्त । ( ७९५ ) "अम्बरीष” भक्त की जोरीस काऊ करै और, बड़ो मनिबौर, किहूँ जान नहीं भाखिये । “दुरवासा" रीसि खीसि सुनि नहीं कहूँ साधु मानि अपराध सिर जटा बैंचि नाखिये ॥ लई उपजाइ काल कृत्या विकरालरूप भूप महाधीर रह्यो ठाढ़ो अभिलाखिये । चक्र दुखमानिले कृशानुतेज राखकरी, परीभीर ब्राह्मण को भागवत साखिये ॥ ३६॥ (५६०) वात्तिक तिलक। श्रीअम्बरीष भक्तराज ऋीषिजी की समानता जो और कोई किया चाहे सो बड़ाही मतिमन्द विक्षिप्त है, क्योंकि उनकी भक्ति किसी प्रकार कथन में भी नहीं पासकती। देखिये, दुर्वासाऋषि ने किसी साधुकी ' सिखावनि नहीं सुनी, श्रीअम्बरीषजी के बिना अपराध ही अपराध माना । अर्थात् एक समय दादशी के दिन महाराज के यहाँ दुर्वासा जी पाए महाराज ने नमस्कार विनय के अनन्तर भोजन के लिये प्रार्थना की, ऋषि