पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१०९

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१० 441 MinaH श्रीभक्तमाल सटीक। श्रीप्रियाजी को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते श्रीजानकीजीवनजी श्रीलक्ष्मणजी के साथ-साथ वहाँ आए॥ (क. ) "जाति के निसिद्ध, मांसभक्षक, अशुद्ध "अवधेश" धर्मयुद्ध, सखा किये निज शुद्ध हैं। पातक पिनद्ध बली रावण अबुद्ध मूढ़ काल पास बद्ध कियो करम विसद्ध हैं ।। सुनत सनद्ध जुरे रसरङ्ग जुद्ध, सिया छीन लिये क्रुद्ध परे पंख बिनु बिद्ध है । रामकृपा रुद्ध दिये प्रेम ते प्रबुद्ध धाम सुख को समृद्ध धन्य श्रीजटायू गृद्ध है 18" दो० "कर सरोज सिर परसेउ, कृपासिन्धु रघुवीर । निरखि राम छविधाम मुख, विगत भईसव पीर ।” प्रभु ने श्रीजगयुजी का सीस अपने श्रीगोद में लेके, स्नेह के आँसुओं से सींचा। (सर्वया) "दीन मलीन अधीन है अंग विहम परेउ क्षिति खिन्न दुखारी। "राधव" दीनदयालु कृपालु को देखि दुखी करुणा भइ भारी ।। गीध को गोद मे राखि कृपानिधि नैन सरोजन में भरि बारी । बारहिं बार सुधारत पंख "जटायु" की धरि जटान सों झारी ।।" चौपाई। "राम कहा तनु गखड्ड ताता"। मन मुसकाइ कही तिन्ह वाता॥ "जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमो मुक्त होय श्रुति गावा ।। सो मम लोचन गोचर आगे । राखौं नाथ ! देह केहि खाँगे ?॥" "गीध अधम खग आमिषभोगी ।गतितेहिदीन्हजोजाँचतजोगी।" प्रभु ने पिता श्रीदशरथजी महाराज के सदृश जान के क्रिया की, इस सनमान की बलिहारी ॥ चौपाई। "गीध देह तनि धरि हरि रूपा । भूषण बहु पट पीत अनूपा ॥ दो अविरल भगति मौगि वर, गीध गएउ हरि धाम। तेहि की क्रिया यथोचित, निज कर कीन्ही राम ॥" गीत "फिरत न बाहिवार प्रचासो । चपरिवाच चंगुलहति हय स्थ खंड खंड करिडाखो॥विस्थ विकल कियो, इत्यादि,इत्यादि॥” तुलसीदास सुर सिद्ध सराइत धन्य विहंग बड़भागी।।