पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+ HondaramHONI Antrawadauranga i -9- 14 4 8me+tamnger- भक्तिसुधास्वाद तिलक। समझके उनसे उलझते हो, कि जिनका प्रभाव वेद गान करते हैं। तुम्हारी रक्षा हम नहीं कर सकते।" हां, श्रीनारदजी ने हित उपदेश दिया। ___ तब अन्त में, श्रीवैकुण्ठ जा पहुंचे और हाय हाय ! करके भकुला के प्रभु से अपना दुःख कहा कि "हे प्रभो । रक्षा कीजिये । त्राहि त्राहि दयालु रघुराई ! रघुवीर करुणा सिन्धु भारतबन्धु जनरक्षक हरे !! इस चक्र का अति तीक्ष्ण तेज मुझे जलाए डालता है। (१)श्राप शर- णागतपाल हैं, मैं शरणागत हूं, (२)भाप भातिनाशक हैं, मैं धान हूं, और (३) श्राप ब्रह्मण्यदेव हैं, मैं ब्राह्मण हूं ॥" यह सुन श्रीभगवान बोले कि “आपने बात तो ठीक कही परन्तु में भक्तों के आधीन भस्वतन्त्र हैं जो मेरे उक्त तीन गुण आपने कहे उनका मान मुझको नहीं है, क्योंकि 'भक्तवात्सल्यगुण' ने इस देश काल में उन तीनों गुणों का तिरस्कार कर (५०) टीका । कवित्त । (७९३) "मोको अतिप्यारे साधु, उनकी अगाधमति, कखो अपराध तुम सह्यो कैसे जात है। धाम, धन, वाम, सुत, प्राण, तनु, त्याग करें र मेरी ओर निशि भोर मोसो बात है। मेरेऊ न सन्त विनु और कछु, सांची कहौं, जाओवाही ठोर, जाते मिटै उतपात है। बड़ेई दयाल, सदा दीनप्रतिपाल करें, न्यूनता न धरै कहूँ, भक्ति गातगात है"॥४१॥ (५८८) वात्तिक तिलक । "मुझे साधु अत्यन्त प्यारे हैं, काहे कि उनका अगाधमत है।सो जब तुमने उन्हींका अपराध किया तो मुझसे कैसे सहा जा सकता है। वे मेरे लिये, गृह, धन, तन, अन्न, जन, वरंच स्त्री, पुत्र तथा प्राणतक, परित्याग करके मेरी ओर, लगते हैं। और रात्रि दिवस मेरा भजन छोड़ उनके दूसरी बात ही नहीं। एवं, मेरे भी सन्तों के लालन पालन सार सँभार विना और कोई कार्य कुछ भी नहीं है, मैं सच्ची २ कहे देता हूँ॥ ___ चौपाई। "अस सजन मम उर बस कैसे । लोभी हृदय बसत धन जैसे ॥"