पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११३

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श्रीभक्तमाल सटीक । ___ आप उन्हीं के पास जाइये, जिससे यह चक्र-कृत दुःख उत्पात मिट जावे । यह शंका न कीजिये कि वे मुझे कैसे क्षमा करेंगे, क्योंकि मेरे सन्त भक्त बड़े ही क्षमाशील, अकारण पर-उपकारी एवं दयालु होते हैं तथा दीनों का सदा प्रतिपाल करते हैं। दूसरे की चूक अपने हिये में नहीं रखते, क्योंकि उनके तो सम्पूर्ण अङ्गों में मेरी भक्ति ही भरी है, किसी की न्यूनता रखने के लिये कुछ भी जगह ही उनके चित्त में वची नहीं है । चौपाई। "सुनु, मुनि ! सन्तन के गुण जेते । कहि न सकहिं श्रुति शारद तेते ॥" (५१) टीका कवित्त । (७९२) ढकरि निरास, ऋषि आयो नृप पास चल्यो गर्न सों उदास, पग गहे, दीन भाष्यो है । राजा लाज मानि, मृदु कहि, सनमान करसो ढखो, चक्र ओर, कर जोरे अभिलाष्यो है ।। भक्त निसकाम, क कामना न चाहत हैं चाहत है विप्र, दूरि करो दुख, चाख्यो है। देखि के विकलताई, सदा सन्त सुखदाई, आई मन मांझ, सब तेज ढांकि राख्यो है ॥४२॥ (५८७) वात्तिक तिलक । प्रभु के ऐसे वचन सुन के ऋषि जी निरास, तथा अपने गर्व (अभिमान) से उदासीन होके चले, और राजा अम्बरीषजी के पास माके चरणों को पकड़कर ऋषि ने दीन वचनों से क्षमा मांगी। महाराज लज्जित हो, सादर पग छुड़ा, कोमल वचनों से मुनिजी का सनमान करके, श्रीचक्रजीकी भोर जाहाथ जोड़, यों प्रार्थना करने लगे कि “हे धमामन्दिर श्रीसुदर्शनजी 1 यद्यपि हरि भक्तों को कोई कामना नहीं होती, वे सदा निष्काम रहते हैं तथापि मेरी यह कामना है कि, इन विषजीने बहुत दुःख पाया सो अव, आप मुझ पर कृपा करके इनकी रक्षा कीजिये सन्तों के सुखदाता श्रीसुदर्शन चक्रजी ने दिजके दुःख से श्रीभगवतभक्त को विकल देख, प्रसन्न हो, प्रार्थना मान, अपने तेजको छिपालिया, और भाग्यभाजन राजा ने दुर्वासा जी को अभयदान दे भोजन करा, विदा किया।