पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११६

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ९७ +ammarperintenane+-0. 01-0ftmanand AMRITAMILITARAMITAM u9Ra वात्तिक तिलक । ब्राह्मण ने फिर जाके श्रीअम्बरीषजी से राजकन्या की प्रीति प्रतीति प्रणय पातिव्रत्य का पन और प्राणत्याग का संकल्पपर्यन्त कहा । राजा ने, ऐसा सप्रेम चाव सुन, धर्मसंकट से अधीर हो, अपना खड्ग दिया, कि "इसी से भावरी फिरा लीजियेगा।" [राजा ने खड्ग इस कारण से दिया कि क्षत्रियों का शन शास्त्र में उनका अंग ही माना गया है ॥] ___ इस प्रकार से विवाह हो जाने पर राजकन्या का आनन्द तन मन में अँटता नहीं था। बड़े ही उत्साह से मन्त्री वर्गों के साथ पुर में आई। राजसुता तथा श्रीअम्बरीषजी दोनों श्रीयुगल सरकार के भक्तिरस माधुरी से छके हुए अन्योन्य छवि देखके श्रीमभु प्रेम में मग्न हो गए । महाराज ने श्राज्ञा दी कि "नए मन्दिर को झाड़ बहार, स्वच्छ कर रानी को निवास देके, सब भोगसामग्री दिया जावे, कि वे नाना प्रकार के सुख भोगें । जाना जाता है कि पूर्वजन्म की मेरी इनकी कोई भक्ति सम्बन्धी विमल वासना थी, इसी हेतु से मेरा इनका सम्बन्ध हुआ, और ऐसाही अनुमान करके इनको स्वीकार किया गया ॥" ( ५५ ) टीका । कवित्त । ( ७८८ ) रजनी के सेस पति भौन में प्रवेश कियो, लियो प्रेम साथ, ढिग मन्दिर के प्राइये । बाहिरी टहल पात्र चौका करि रीझि रही, गही कौन जाय, जामें होत ना लखाइये । आवत ही राजा देखि लगै न निमेष क्यों हूँ कौन चोर आयो मेरी सेवा ले चुराइये । देखी दिन तीनि, फेरि चीन्हि के प्रवीन कही, “ऐसो मन जोपै प्रभु माथे पधराइये" ॥४६॥(५८३) वात्तिक तिलक । भक्तिवती रानी अपने निवास में रहने लगी। एक दिन कुछ रात रहते हुए अकेली केवल अपने प्रिय प्रेम ही को संग लेके पति के पूजामहल में प्रवेश करके भगवतमन्दिर के समीप श्राके बाहर की सेवा टहल किये अर्थात् पूजा के पार्षद मांज के चौका लगाके, उस