पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११५

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श्रीभक्तमाव सटीक। PARMAHAm a teuwaoneteleaseurrent + (५३) टीका । कवित्त । (७९०) कह्यो नृपसुतासो जु कीजिये यतन कौन ? पोन जिमि गयो आयो काम नाहीं विया को । फेरिके पठायो, सुख पायो मैं तो जान्यों वह बड़े धर्मन, वाके लाभ नाही तिया को ।। बोली अकुलाइ मन भक्ति ही रिझाइ लियो, कियो पति, मुख नहीं देखौं भोर पिया को । नाइके निशंक यह बात तुम मेरी कहो, “चेरी जो न करौ तौ पै लेवो पाप जिया को" ॥४४॥ (५८५) बात्तिक तिलक। ब्राह्मण ने आके राजकन्या से सव वाता सुना के कहा कि "क्या यत्न किया जाय ? मैं पवन के समान वेग से गया और भाया पर कार्य कुछ भी (गुंजा के बीया भर भी) न हृया। राजकन्या ने कहा कि उनके तीव्रतर वैराग्य की अनुपम व्याख्या सुनके मुझको बड़ा ही भानन्द हुआ, मैं जानती हूँ किवे बड़े ही धर्मत्र हैं तथा उनके शुद्ध मन्तःकरण में भक्ति- लता ऐसी सघन फैली है कि स्त्री आदिक की चाह के अङ्कर की जगह रही नहीं है।" इतना कहने के साथही साथ भक्तराज के स्नेह से व्याकुल हो के वह सुशीला फिर बोल उठी कि "उनकी भगवद्भक्ति ही ने मेरे अंतःकरण को आकर्षण करके मुझे ऐसा रिझा लिया है कि मैं उनको अपना पति मान चुकी हूँ और अब दूसरे पुरुष का मुँह में देखनेवाली नहीं । भाप फिर जाके निःशंक कहिये कि 'जो आप अपने चरण की चेरी न कीजियेगा तो मेरे देह त्याग का पाप लीजिये मैं उनके विना अपने प्राण नहीं रखने की। दो० "के अपनावहिं मोहि वे, के मैं त्यागौं देह । भक्तशिरोमणि नृपति ते, कहेहु विप्रवर ! नेह ॥" "(५४) टीका । कवित्त । (७८९), कही विष जाय, सुनि चाय भहराय गयो, दयो लै खड़ग “यासों फेरी फेरि लीजिये।" भयो जू विवाह उत्साह कहूँ मात नाहि, भाई पर अम्बरीष देखि कवि भीजिये ।। कह्यो “नवमन्दिर में झारिकै बसेरो देवो, देवोसचभोग विभौ, नाना सुख कीजिये । प्रम जनम कोऊ मेरे भक्ति गन्ध हुती, याते सनबन्ध पायो यहै मानि धीजिय" ॥४५॥ (५८४)