पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक उस छवि को श्रापही अवलोकन करती हुई चन्द्रचकोरवत एकटक रह जाती, शोभासिन्धु श्रीप्रभु की शोभा का पार नहीं पाती थी, उसके नेत्रों से प्रेमानन्द जल की झड़ी सी लग जाती थी । सेवा राग भोग से अपार भाव हुथा। इस भक्तिरसिका रानी की प्रीति प्रतीति रीति भक्ति की ऐसी अभिवृद्धि हुई कि सम्पूर्ण नगर में सुकीर्ति छा गई॥ यहाँ तक कि राजा ने भी सुना, तब उनको भी प्रेमवती के प्रेम- वर्द्धक प्रभु के दर्शन की अतिशय चाह उत्पन्न हुई, वरंच दर्शन विना व्याकुल होके ततकाल चलही तो दिया ॥ (५७) टीका । कवित्त । (७८६) हरे हरे पांव धरै, पौरियानि मने करे, खरे अस्वैरे, कब देखौं भागभरी को । गए चलि मन्दिर लौ, सुन्दरी न सुधि अङ्ग, रङ्ग भीजि रही, हग लाइ रहे झरी को ॥बीन लै बजावे, गावै, लालन रिझावे, त्यो त्यों अति मन भाव, कहैं धन्य यह घरी को। द्वार पै रह्यो न जाय, गए दिग ललचाय, भई उठि ठादि देखि राजा गुरु हरी को ॥ ४॥ (५८१) बात्तिक तिलक जब निकट पहुँचे तब धीरे धीरे पांव रखते और पौड़ियों को अर्थात् वृद्ध द्वाररक्षकों तथा द्वाररक्षिणियों को रसे रसे निवारण करते, कि रानी को जाके जताओ मत । और अत्यन्त अकुला रहे हैं कि उस भाक्ति भाग्यपूर्ण को मैं कब देखू । यों ही जब मन्दिर के समीप जा पहुँचे तब देखते क्या हैं कि सानुरागा सुन्दरी अपने शरीर की सुधि भूल के प्रेमरसरंग में मग्न है, उसके नेत्रों से प्रेमानन्द जल की अवि- च्छिन्न वर्षा हो रही है, वीणा बजा के झीने स्वर से प्रभु का नाम यश गाके प्राणप्रिय को रिझा रही है । यह दशा ज्यों ज्यों देखते हैं त्यों त्यों श्रीअम्बरीषजी के मन में यह दशा तथा प्रीतिदर्शावती रानी अत्यन्त ही प्रिय लगती हैं । महाराज मन में कहते हैं कि यह घड़ी धन्य है। रा० क. "कोउ लै बान नवीन सुरनते, मनहु बशीकर जापैं ॥ कोउ मृगनयनी कोकिलवयनी, पंचम राग अलापै ॥