पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११९

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indan-1 - 4MMMMMANNA Marud-IM श्रीभक्तमाल सटीक । श्लोक “नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च । __मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि, नारद ! ॥ प्रेमसुख के लालच से द्वार पर ठहरा नहीं गया, तब रानी के पास ही जा खड़े हुए। "हरि ते अधिक गुरुहि जिय जानी" के आशय ने, प्रेम- निमग्न रानी की सुरति को श्रीसेवा से खींचके, भक्तराज के सन्मुख कर दिया, रानी ने देखा कि मेरे हरि (पति) हितोपदेशक गुरु, राजा, पास ही खड़े हैं । इससे उनके आदर के निमित्त उठ खड़ी हुई । (५८) टीका । कवित्त । (७८५) वैसे ही बजायोबीन ताननि नवीन लैके. झीनसुर कान पर, जाति मति खाइये। जैसे रंग भीजि रही, कही सो न जाति मोपे, ऐपै मन नैन चैन कैसे करि गोइये ॥ करिक अलाप चारो फेरिकै सँभारि तान, थाइगयो ध्यान रूप ताहि माँझ भोइये । प्रीति रसरूप भई, राति सर्व बीति गई, नई कछु रीति अहो ! जामें नहिं सोइये ॥ ४ ॥ (५८०) बार्तिक तिलक । तब राजा ने कहा कि “इस सम्मान को इस घड़ी जाने दो, जैसे बीन बजाती रही हो, वैसे ही बजाके नए तान लेके मधुर स्वर से स्वामी के यश गान करो, क्योंकि उस श्रवणामृत के सुने बिना मेरी मति विकल हुधा चाहती है।" रानी जैसे अनुराग रंग में मग्न हो रही है, सो दशा मुझसे कही नहीं जा सकती, परन्तु ध्यान से देखते ही मन तथा मानसिक नेत्रों को श्रोपती अर्थात् चमाचम प्रेमप्रमामय कर देती है, वह प्रेमानन्द कुछ कहे बिना किसी प्रकार से रहा नहीं जाता। राजा के वचन सुनते ही रानी ने वीणा लेके फिर सरस स्वर अलाप करके गान तान को सँभाला, कि जिसके साथ ही मन में श्यामसुन्दर- रूप अनूप का ध्यान आ गया और उसी में मग्न हो गई । इस भांति, रानी राजा दोनों को ऐसी भक्तिरसरूपा प्रीति बढ़ी कि जिसमें सारी रात पल सरीखी व्यतीत हो गई। आश्चर्यमय प्रीति की अलौकिक रीति की