पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१२१

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श्रीभक्तमाल सटीक । प्रभाव से ही, सब रानियों बरंच सम्पूर्ण नगरवासियों का स्वभाव संसार से पलटके प्रभु में लग गया । और सर्वत्र भगवतप्रेमानन्द छा गया। सत्संग ऐसा पदार्थ है ॥ (२४) श्रीविदुरानीजी और (२५) श्रीविदुरजी। ( ६० ) टीका । कवित्त । ( ७८३) न्हात ही विदुर नारि, अंगन पखारि, करि आइ गए द्वार कृष्ण बोलि के सुनायो है । सुनत ही स्वर, सुधि डारी लै निदर, मानो राख्यो मद भरि. दौरि श्रानिकै चितायो है । डारि दियो पीत पट, कटि लपटाय लियो, हियो सकुचायो, वेष वेगि ही बनाया है। बैठी दिग आइ, केरा छीलि छिलका खवाइ, आयो पति, खीझयो, दुःख कोटि गुनो पायो है ॥ ५३॥ (५७८) वात्तिक तिलक । महाभारत होने के पूर्व श्रीकृष्ण भगवान पाण्डवों की ओर से मिलाप की वार्ता करने को दुर्योधन के पास गये, पर उसने नहीं माना, इससे उसके घर भोजन भी नहीं किया। श्रीविदुरजी के गृह श्राए, उस समय श्रीविदुरजी की घी, दूसरे वन्न के प्रभाव से विवस्त्र हो अंगों को धो २ स्नान कर रही थीं। द्वारपर पाके श्रीकृष्ण भगवान ने महामधुर स्वर से पुकारा, श्रीविदुरानीजी आपका वह मधुर स्वर सुनते ही सुध बुध भूल गई, क्योंकि वह स्वर मानो प्रेम से भरा हुआ था, दौड़ती हुई आके किवाड़ों को खोलके दर्शन किया। श्रीयादवेन्द्रजी ने भी उनको प्रेमोन्मत्त वस्त्रहीन देखके अपना पीताम्बर शीघ्र ही आपको उदा दिया, जिसको आपने अपनी कटि में लपेट लिया और संकोचयुक्त हो, शीघ्रता से अपने वेष को संभाल लिया। श्रीकृष्ण भगवान ने कुछ भोजन मांगा। आप केले ला, पास बैठ, केले को छीलने लगी, पर प्रेम तथा हर्ष से विह्वल होके, छिलकों ही को तो खिलाती जाती थीं और सार को फेंक २ देती थीं ॥ भक्तवत्सल भगवान प्रेम के स्वाद में बके बिलकों ही को बड़े चाव