पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१२३

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. .. M. INMM 9 0 .00 १०४ श्रीभक्तमाल सटीक । देखिये । श्रीविदुरानीजी तथा श्रीविदुरजी का छिलका और सार खिलाना, ये दोनों ही बातें प्रेम की ही हैं, तथापि प्रेमरूपी सागर ऐसा अपार है कि कोई उसका पार नहीं पा सकता, हाँ, जो इस प्रेम में परायण होके प्रेमग्राहक प्रभु को लाड़ लड़ावे, प्रेम करे, सोई इस अनुरागसिन्धु की गम्भीरता तथा अपारता को कुछ जाने, अपने तो, आप सबकी कृपा से, केवल गानमात्र कर दिया है । (२६) श्रीसुदामाजी (दामनजी) (६२) टीका । कवित्त । ( ७८१) बड़ो निसकाम, सेर चूना हू न धाम, ढिग आई निज भाम, प्रीति हरि सौ जनाई है। सुनि सोच पस्यो हियो खरो अवसौ, मन गाढ़ो लेके कखो, बोल्यो "हांजू सरसाई है" | "जावो एक बार, वह बदन निहार श्रावो, जोपै कछु पावो, ल्यावो मोको सुखदाई है"। "कही भली बात, सात लाके में कलंक हैहै, जानियत याही लिये कीन्ही मित्रताई है"॥ ५३॥ (५७६) वार्तिक तिलक । श्रीकृष्ण भगवान के मित्र श्रीसुदामाजी बड़े निष्काम भक्त थे, यहां तक कि घर में सेर भर श्राटा भी न रहता था। एक दिन उनकी धर्मपत्नी श्री "सुशीला" देवी, समीप में आके, कहने लगी कि "सुना है कि श्री. लक्ष्मीपति द्वारकाधीश श्रीकृष्णचन्द्रजी से और आपसे मित्रता है। यह सुन, श्रीसुदामाजी उसका भाशय विचारके, हृदय में अत्यन्त घबड़ाकर सोच में पड़ गए, परन्तु फिर मन को दृढ़ करके बोले कि "हां, उनकी मेरी तो बड़ी सरस प्रीति है।" इस पर ब्राह्मणी (उनकी बी) ने कहा कि “एक बेर जाके अपने मित्रवर का मुखचन्द्र अवलोकन कर आइये, और यदि कुछ मिले तो लाइये कि वह मुझे बड़ा सुखदाई होगा।" भक्तजी ने उत्तर दिया कि “तुमने बात तो भली कही, परन्तु मुझको