पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१२४

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printml+ 0 000 FARMIRAHIMAH ARI + +antan भक्तिसुधास्वाद तिलक । समस्त लोकों में कलंक होगा कि इस अर्थार्थी भिक्षुक ब्राह्मण ने केवल द्रव्य ही के लालच से प्रभु से मित्रता की है। दो० भजन विगाड़ी कामिनी, सभा विगाड़ी कूर । भक्ति बिगाड़ी लालची', केसर मिलगइ धूर ॥१॥ एवमादि, इनने बहुत “नहीं, नहीं" किया, परन्तु- ( ६३ ) टीका । कवित्त । (७८०) तिया सुनि कहै "कृष्णरूप क्यों न चहै ? जाय, दहै दुख पापही सो" बचन सुनाए हैं।ाई सुधिप्यारे की, विचारे, मति टारे अब, धारे पग, मग झूमि “द्वारावती" आए हैं ॥ देखिकै विभूति, सुख उपज्यो अभूत कोऊ, चल्यो मुखमाधुरी के लोचन तिसाए हैं। डस्पत हियो, ड्योढ़ी लांधि, मन गादो कियो, लियो कर गहि चाह तहाँ पहुँचाए हैं ॥५४॥ (५७५) वात्तिक तिलक । इनका उत्तर सुन, इनकी स्त्री ने कहा कि “जाके केवल अपने प्रिय मित्र के रूप अनूप का दर्शनमात्र क्यों नहीं करते ? और ऐसा प्रमाण वचन भी सुनाया कि "भगवत् के दर्शन ही से दारिद्रयादि सब दुःख आपही पाप भस्म हो जाते हैं।" श्रीसुदामाजी को प्राणप्यारे मित्र के रूप का ध्यान आगया,तब विचार करके लोभादिकों के उपहास की शङ्का को चित्त से हटाके, श्रीकृष्ण भगवान के दर्शन को सानुराग चले, प्रमेपद में छके झूम झूम पग धरते, मिलनसुख का मंजु मनोस्थ करते हुए श्रीहरिकृपा से अतिशीघ्र श्रीद्वारका- जी में आपहुँचे । परम प्रिय प्रभु का ऐश्वर्य विभूति देखके मन में कोई आश्चये सुख उत्पन्न हुआ, और आगे बढ़े॥ मित्र मुखचन्द्र सुधापान के हेतु नेत्र चकोर अतिशय प्यासे हैं, इससे श्राप अत्यन्त आतुर हो रहे हैं, हृदय में किसी के रोक देने का भय भी हो रहा है, परन्तु मन को दृढ़ करके, गजसदन पर श्रा विमजी ने डेवढ़ियों को उल्लंघन किया, मानो मिलनकी चाहरूपी प्रतिहारी ने इनका हाथ गहके (थांभ के) इनको श्रीकृष्ण महाराज के पास पहुँचा दिया।