पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१३८

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११९ ri+MMMEMPLOADMAARAMMAntrawRN.HMI-Fature-MH-44- भक्तिसुधास्वाद तिलक । अस सुराज बसि दुनों लाहू । लोक लाभ परलोक निवाहू ॥" ___ श्रीचन्द्रहास कथा सुनने का तथा श्रीचन्द्रहासजी के प्रात समय नाम लेने के माहात्म्य को "जैमिनी” जी ने वर्णन किया ही है ॥ (२८) श्रीमैत्रयऋीषजी। .. (६८) टीका । कवित्त । (७६५), "कोषाख" नाम सो बखान कियो नाभाजूने मैत्रे अभिरामऋषि जानि लीजै बात में। आज्ञा प्रभु दई जाह विदुर, है भक्त मेरो, करौ उपदेश- रूप गुण गात गात में ॥ 'चित्रकेतु' प्रेमकेतु 'भागवत' ख्यात, जाते पलट्यो जनम प्रतिकूल, फल घात में । 'अक्रूर आदि ध्रुव' भए सब भक्त भूप उद्धव' से प्यारेन की ख्याति पात पात में ।। ६६ ।। (५६०) वात्तिक तिलक । आपकी माताजी का नाम श्रीमित्राजी और पिताजी का नाम श्री. कुषारुजी था, इसी से, पाप"श्रीमैत्रेय"ऋषि,तथाश्री "कोषारव"भी कहे जाते हैं, कि जो नाम श्रीनभोभूज (श्रीनाभाजी) स्वामी ने वर्णन किया है। श्राप श्रीपराशर मुनि के शिष्य हैं। ____जिस घड़ी श्रीकृष्ण भगवान विदुरजी के लिए, अपने सखा श्रीउद्धवजी को, ज्ञान और भक्ति का उपदेश कर रहे थे उस समय वहीं श्रीमैत्रेय ऋषिजी भी थे तथा उन्होंने भी उपदेश लाम किया था, और प्रभु ने इन से आज्ञा की थी कि."मैत्रेयजी ! आप मेरे परम प्रिय भक्त विदुरजी को यह उपदेश इस प्रकार सुना दीजियेगा कि जिसमें मेरा नाम मेरे गुण और मेरा रूप उनके रोम रोम में, नाड़ी नाड़ी में, प्रविष्ट व्याप्त और विराजमान हो जावे ॥" - जब श्रीकृष्णभगवान गोलोक को गए, और श्री "उद्धवजी" प्रभु के विरह में बदरिकाश्रम को चले जा रहे थे, तो श्रीविदुरजी से श्रीउद्धव- जी मिले, परन्तु श्रीविरह में अत्यन्त विकल हो रहे थे इससे कुछ उपदेश न करके श्रीउद्धवजी ने श्रीविदुरजी से इतना ही मात्र कह दिया कि प्रभु ने श्रीमैत्रेयजी के सामने मुझसे आपके लिये बहुत कुछ उपदेश किया है, सो मैं तो विरहाकुल हूँ, आप उनसे सत्संग