पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१४१

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timdAMHORSHAAtmentnant नाननAdnant-44- १२२ श्रीभक्तमाल सटीक । यदुवंशमणि महाराज की सेवा प्रेमपूर्वक अतिशय उत्तम प्रकार से किया करते थे। जब श्रीब्रजराजजी की आज्ञा से आप श्रीगोपियों के पास बज पहुँचे, तो उनकी अद्भुत प्रीति देखी- (पूर्वी) सुधि न लीन्हि प्रिय विरहिनि हियकी। सखि ! मोहिं कत दिन तरसत बीते, सुधि न लीन्हि पिय विरहिनि हिय की ॥ आइ धुआं मुख, हिय विरहागी, ठादि जरों जैसी बाती दिय की। अधिक दाइ चित चातक कोकिल, विरह अनल जिमि आइति घिय की ॥ सब उर व्यापक, अन्तरयामी, जानत हैं पिय रुचि तिय जिय की । सांचहु स्वपनेहु कब लगि देखिहौं मधुर मनोहर छवि सियपिय की ॥क्षमानिधान विलोकि हैं निज दिशि, करिहहि खोज न मोरे किय की । कृपानिधान दया सुख- सागर, मनिह सखि ! बिनती लघु तिय की ॥ रूपकला विनवति हनुमत ही, चन्द्रकला अरु गिरिवर घिय की । एको उपाय न सूझत आली । मोहिं श्राशा केवल श्रीसियकी ॥१॥ (रूपकला) "अब तो सुरतिया दिखा दे पियरवा, धीर धरो नहिं जात रामा। तलफत बीति गई ऋतु सारी,शीत गरम बरसात रामा ॥ हाय तिहारो सँदेसवो न पायों, रहि रहि जिय अकुलात रामा । अब तो० ॥नीको न लागत भोजन भूषण, तात मात अरु भ्रात रामा। संग की सहेली अली अवली सब, जहँ लों कुद्धम अरु नात रामा। अब तो० ॥ घर ना सुहात घने बन बाहर, भीतर दिन अरु रात रामा। सांझ सुहात न धूप छांह कछु, अरु न सुहात प्रभात रामा। अब तो०॥जानत हौं नहि ज्ञान ध्यान जप, जोग जुगुत की बात रामा। श्रवण मनन निदिध्यासन श्रासन, कीर्तन सुमिरन प्रात रामा ॥अब तो०॥सहि नहिं जात व्यथा बिछुरन की, नाहि कछुक कहि जात रामा । काह करौं जिय निकसत नाही, नातो बनत विष खात रामा || अब तो॥हारी जतन करे राह न सूझत, कित जाऊँ नहिं बात रामा। दीनदयाल दया दरसायो,