पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१४२

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१२३ +MARATHI +- + -+ + + भक्तिसुधास्वाद तिलक । “जीत" जगत विख्यात रामा । अब तो सुरतिया दिखा दे पियरवा, धीर धरो नहिं जात रामा॥ (सर्वजीतलाल) प्रिय पाठक ! सूरसागर, कृष्णगीतावली, ललितगीत, गीतगोविन्द इत्यादिक देखने ही योग्य हैं। निदान श्रीसखावर उद्धवजी महाराज उनके चरणरज में लोटनलगे और अपने को धन्य और कृतकृत्य, तथा अपना सव सुकृत सफल समझा। धन्य धन्य श्रीउद्धवजी, जिनने श्रीवजसुन्दरियों की महिमा अपने हृदय में बसाई॥ “तव महिमा जेहि उर बसै, तासु परम वड़ भाग ॥" आप जब बज से लौटके ब्रजवल्लभ महाराज के पास आए, तो प्रभु से श्रीवजसुन्दरियों की ऐसी स्तुति की कि जिसके लिये श्रीउद्धवजी की प्रशंसा जहां तक की जावे सब थोड़ी ही है। __आप मथुरा से श्रीगोपिकापाणवल्लमजी के साथ साथ श्रीद्धारकाजी को गए। वहां से देशकालानुसार उपदेश तथा ज्ञान और भक्ति प्रभु से प्राप्त करके, आज्ञा पाके, प्रभु के वियोगाग्नि से बदरिकाश्रम को गए। (३१) श्रीध्रुवजी। जैसे करुणाकर प्रभु श्रीमहादजी का कष्ट न सहके उनके रक्षार्थ आप प्रगट हो ही गये, वैसे ही आपने "श्रीध्रुववरदेन" अवतार भी धारण किया ॥ श्रीध्रुवजी की कथा प्रसिद्ध ही है। ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नामू । पायउ अचल अनूपम ठामू ।। राजा उत्तानपाद की रानी सुनीति के गर्भ से आपका जन्म हुआ, और श्रीसुनीतिजी की सपत्नी सुरुचि के गर्भ से जो पुत्र था, उसका नाम "उत्तम" था। एक समय, राजा उत्तम को गोद में लिये हुए थे, श्रीध्रुवजी ने भी (जो चार वर्ष के थे) राजा के गोद में बैठना चाहा, परन्तु उनकी वह सौतेली माता बोल उठी कि “भगवत का तप करके तू पहिले मेरे उदर से जन्म तो ले, तब तुझको राजा के अंक में बैठने की योग्यता और अधिकार होवे" यह सुन आप रोते हुए निज माता के पास गए, और उनकी प्राना पाकर तप करने को निकले ॥