पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२१०

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MAR R IronmentMM14.untrtalpmararl martinathunMinum भक्तिसुधास्वाद तिलक । ...............१९१. (९७) श्रीदिलीपजी। श्रीदिलीपजी सातो द्वीप के राजा थे, आपकी राजधानी श्रीअयोध्याजी थी॥ एक दिन रावण विभवेष बनाके आपके पास पहुँचा, उस समय महाराज पूजा कर रहे थे। एक कुश और किंचित् जल दक्षिण दिशा की ओर फेंका, यह देख रावण को संदेह हुआ और उसने पूछा कि आपने यह क्या किया? महाराज ने उत्तरदिया कि वन में गायें चर रही थीं, उनकोसिंह ने पकड़ना चाहा था। इसीलिये मैंने मंत्रित करके वह तृण फेंका है, सो उस बाण ने बाघ को मार के गायों की रक्षा की और लंका में जाके रावण का घर जलाने लगा इसलिये उसके पीछे जल छोड़ दिया कि जिसने वह भाग बुझा दी है।। यह सुनकर रावण झटपट चल दिया और जाकर देखा तो आपकी सब बातें ठीक पाई और आश्चर्य तथा शंका में डूबके फिर कभी यहाँ (श्रीअयोध्याजी) भाने का नाम न लिया वरन् महाराज दिलीप के नाम से डरा करता था। यशस्वी महाराज दिलीपजी ने अपने पुत्र श्रीभगीरथजी को राज देकर बन जाय श्रीगंगाजी के हेतु तप करते करते तन तज दिया। आपका मनोरथ श्रीभगीरथजी ने पूरन किया कि जिनकी कथा लिखी जा चुकी है। (८) श्रीयदुजी। श्रीयजी, राजा श्रीययाति के पुत्र थे देवयानी के गर्भ से ॥ श्रीदत्तात्रेयजी महाराज ने कृपा करके राजा यदु के यहाँ पाकर दर्शन दिया और इनके सत्सङ्ग से राजा यह को विवेक उत्पन्न हुश्रा और राज तज बन में जा भगवत् भजन कर परम धाम को गये।